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[ ६७ ] और देव जल छिल्लर सरीखे, तुं तो समुद्र अथाग, तु सुरतरू ज ग) ज वांछित पूरन, और तो सूके साग
में कीनो० ॥ ३ ॥ तुं पुरुषोत्तम तुंहि निरंजन, तुं शंकर बड भाग तुं ब्रह्मा तुं बुध्य महाबल, तुं ही ज त वीतराग ।।
में कीनो० ॥ ४॥ मुविधि नाथ तुम गुन फुलनको, मेरो दिल है बाग, जस कहे भ्रमर रसिक होई ताको, दीजे भकित पराग
-में कीनो० ॥ ५॥
(२) तोहरी अजब शो योगनी मुद्रा रे, लागे मुने मीठी रे, एतो टाले मोहनी निद्रा रे, प्रत्यक्ष दीठीरे ॥१॥ लोकोत्तरथी जोगनी मुद्रा वाला मारा, निरुपम आसन सोहे सरस रचित शुकलध्याननी धारे, सुरनरना मन मोहे, रे ॥२॥ त्रिगडे रतन सिंहासने बेसी, वालमारा चिहुंदिशि चामर ढलावे अरिहंत प्रभुतानो भोगी तो पण जोगी कहावे रे ॥३॥ अपृतझरणो मीठी तुज वाणी वाला मारा जेम आषाढो गाजे कान मारग थइ हियड़े पेसी, संदेह मनमां भांजे रे ।।४।। कोडिगमे ऊमा दरबारे वाला मारा जय मंगल सूर बोले, त्रण भुवननी रिद्ध तुज आगे, दीसे इम तृग तोले रे ॥ ५ ॥ भेद लहुँ नहि जोग जुगलिन वाला माण सुवधि जिण द बतावो; प्रेमशुकाति क हे करी करुणा; मुज मन मंदिर आवो रे ॥ ६ ॥