Book Title: Patanjali Yoga Sutra Part 04
Author(s): Osho
Publisher: Unknown

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Page 7
________________ 'जिस पर ध्यान किया जाता हो उसी में मन को एकाग्र और सीमित कर देना धारणा है। दृश्य, द्रष्टा, और इन दोनों के भी पार -इन तीनों को याद रखना है। जैसे तुम मेरी ओर देखते हो मैं दृश्य हूं; वह जो मेरी ओर देख रहा है, द्रष्टा है। और अगर तुम थोड़े संवेदनशील होते तो तुम स्वयं को मेरी तरफ देखते हुए देख सकते हो यही है बियांड, पार के भी पार। तुम मेरी ओर देखते हुए भी स्वयं को देख सकते हो। थोड़ी कोशिश करना। मैं दृश्य हूं, तुम मेरी तरफ देख रहे हो। जो मेरी तरफ देख रहा है, वह द्रष्टा है। तुम अपने भीतर एक ओर खड़े हो कर देख सकते हो। तुम देख सकते हो कि तुम मेरी ओर देख रहे हो। वही है बियांड। पहली तो बात, व्यक्ति को किसी विषय पर ध्यान एकाग्र करना पड़ता है। एकाग्रता का अर्थ होता है मन को सिकोड़ना। साधारणत: तो मन में हमेशा विचारों की भीड़ चलती ही रहती है –हजारों विचार भीड़ की तरह, उत्तेजित भीड़ की तरह चलते ही रहते हैं। इतने विचारों में व्यक्ति उलझा रहता है कि उन विचारों की भीड़ में खंड-खंड हो जाता है। इतने ज्यादा विचारों में तुम बहुत सारी दिशाओं में एक साथ जा रहे होते हो। विचार के इतने विषय कि उसमें व्यक्ति लगभग विक्षिप्तता की हालत में पहुंच जाता है। व्यक्ति की हालत वैसी ही होती है जैसे कि प्रत्येक दिशा से उसे खींचा जा रहा हो और सब कुछ अधूरा हो। जाना हो बायीं तरफ, और कोई तुम्हें दायीं ओर खींचे, जाना दक्षिण हो, और कोई उत्तर की ओर खींचे। ऐसी हालत में तुम कहीं नहीं पहुंचते। बस एक अस्त व्यस्त ऊर्जा, एक भंवर और हलचल जिसमें सिवाय दुख, पीड़ा और संताप के कुछ भी नहीं मिलता। यह तो साधारण मन की अवस्था है -इतने अधिक विषय होते हैं कि आत्मा तो लगभग ढंक ही जाती है। तुम्हें इस बात की अनुभूति ही नहीं होती कि तुम कौन हो, क्योंकि तुम इतनी चीजों से एक साथ जड़े होते हो कि तम्हारे पास कोई अंतराल ही नहीं होता स्वयं को देखने के लिए। भीतर कोई थिरता, और अकेलापन नहीं होता। तुम सदा भीड़ में रहते हो। तुम्हारे पास स्वयं के लिए कोई रिक्त समय, और स्थान ही नहीं होता जहां कि तुम स्वयं में उतर सको। और विषय जो कि निरंतर ध्यान पाने की मांग करते हैं, प्रत्येक विचार ध्यान पाने की मांग कर रहा होता है, या कहें कि विवश ही करता है कि उस पर ध्यान दिया ही जाए। यह है साधारण अवस्था। यह लगभग विक्षिप्तता ही है। वैसे तो कौन पागल है और कौन पागल नहीं है इसमें भेद करना अच्छा नहीं है। भेद केवल मात्रा का ही होता है। भेद गुणवत्ता का नहीं है, भेद केवल मात्रा का ही है। शायद तुम निन्यानबे प्रतिशत पागल हो और दूसरा व्यक्ति उसके पार चला गया हो-सौ प्रतिशत पर पहुंच गया हो। जरा स्वयं का निरीक्षण करना। कई बार तुम भी सीमा पार कर जाते हो जब तुम क्रोध में होते हो तो पागल हो जाते हो -क्रोध में वे काम कर जाते हो जिन्हें करने की तुम सोच भी नहीं सकते थे। क्रोध में कुछ कर लेते हो, फिर बाद में पछताते हो। क्रोध में ऐसे काम कर जाते हो, फिर बाद में तुम कहते हो, 'यह

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