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पार्वाभ्युदय पाम्बरनामा देव इति भावः । निवण्यो-प्रेक्षाञ्चक्रे । 'ध्यं स्म' चिन्तायाम् । कतरि लिट् । अत्र काव्ये सर्वत्र मन्दाक्रान्तानि वृत्तानि । 'मन्दाक्रान्ता कृहमदीदू' इति रत्नमञ्जूषिकायामुस्तत्त्वात् ।।१।।
अन्वय-कान्ताविरहगुरुणा बद्धवरेण: दानः स्वाधिकारात प्रमत्तः नसि बिहरन् कश्चित् दैत्यः मरकतमम स्तम्भलक्ष्मी वहन्त्या योगैकाग्रस्तिमिततस्या श्रीमन्मयां तस्थिवांसं पावं निदध्यौ ।
अर्थ-प्रिया के विरह से दुःस्ली, ( पूर्वभव में जिसका विरह हुआ था, वह धर्मपत्नी नहीं, अपितु भाई की पत्नी थी, भार्या के रूप में अङ्गीकृत किए जाने पर उसका उसके साथ राजा की आज्ञा से वियोग हुआ था। राजा के द्वारा दण्डित होने पर उस व्यक्ति ने अपने भाई से वैर बाँधा) पूर्वजन्म में बाँधे हुए वैर से प्रज्ज्वलित कोपाग्नि वाले, अपने ऐश्वर्य या सामर्थ्य ( देवसुलभ प्रभाव ) के कारण उन्मत्त, आकाश में विहार करते हुए किसी ( शम्बर नाम बाले ) दैत्य ने मरकतमणि निर्मित स्तम्भ की शोभा ( हरितवर्ण को कान्ति ) को धारण करने वाले, ध्यान की एकाग्रता के कारण अधिक स्थिर, शोभायमान शरीर से युक्त पार्श्वनाथ भगवान् को स्थित ( कायोत्सर्ग मद्रा में स्थित ) देखा ||१||
व्याख्या-किसी एक दैत्य ने जो कि अपने पुराने वैर के कारण कोपाग्नि में जल रहा था ( क्योंकि पूर्व जन्म की प्रेमिका से उसका विरह हो गया था) तथा जो वर्तमान देव पर्याय की सामर्थ्य के कारण उन्मत्त था, भगवान् पार्श्व को देखा । भगवान् पार्श्व ध्यान लगाए हुए कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित थे। उस समय उनको शोभा मरकतमणिनिर्मित स्तम्भ की शोभा के समान हो रही थी । गहन-समाधि में मस्तिष्क की एकाग्रता के कारण वे अत्यधिक अचंचल थे। बजवृषभनाराचसंहनन, समचतुलसंस्थान और १०८ महालक्षणों आदि को धारण करने के कारण उनका शरीर अत्यधिक शोभित हो रहा था ।।१।।
तन्माहात्म्यास्थितवति सति स्वे विमाने समानः, प्रेक्षाञ्चन भ्रकुटिविषम लब्धसंज्ञो विभागात् । ज्यायान्भ्रातुवियुतपतिना प्राक्कलत्रेण योऽभूअछापेनास्तंगमितमहिमा वर्षभोग्येण भर्तुः ॥ २॥ तनमाहात्म्यादिति । तम्माहारम्यात्-महश्चिासावारमा प महात्मा तस्य भावो माहात्म्यम् । 'पतिराजान्तः' इति भावे टयण 'आरपोवादेः' इति आकारः । तस्य पार्श्वनाथस्य माहात्म्य तथोक्त तस्मात् । तत्तपोमहिम्न इति भावः ।