Book Title: Parshvabhyudayam
Author(s): Jinsenacharya, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 278
________________ तृतीय सर्ग २७७ तुम्हारे साथ मंयोग कर शोक दूर होने के कारण तुम्हारे द्वारा खोली जाने वाली, उस अपनी शिस्त्रा की निन्दा करती हुई, मुख चन्द्र को ग्रसने के रसिक प्रमुख चन्द्र के समीप में आए हए) राह के समान, आकाश की कान्ति के समान ( श्यामल ) कान्ति बालो, कामाग्नि की दण्डाकार धूमरेवा के समान, बार बार छने से अव्यवस्थित कठोर और विषम ( नीची, ऊँची) एक ही चोटी के रूप में विद्यमान उस वेणी को बिना कटे नाखून से युक्त हाथ से कपोल स्पर्श से बार बार हटाती हई, आधित इष्ट बन्धुओं को मानों खोजने के लिए खिड़कियों से प्रवेश करती हुई अमृत के सदृश ठण्डी चन्द्रमा की किरणों का पहले को प्रीति से स्वागत करने के लिए सामने गये हए किन्तु तत्क्षण हो लौटे हुए अपने दोनों नेत्रों को हटाकर मन से काँपती हुई, चन्द्रमा के द्वारा अपनी किरणें झरोखों के मार्गों से पुनः पुनः विस्तार करने पर गमनागमन के दुःख से पुनः पोसित होते हुए नेत्र को अश्ररूपी जल से भारी बरी नियों से हँकती हई, मेघों से ढंके हए दिन में स्यलकमलिनी के समान न जागती हुई और न सोती हुई उस साध्वी ( शीलवती) को इस प्रकार के आपके विषय में सौभाग्य को प्रकट करने वाले यथार्थ मेरे सन्देशों से सुख पहुँचाने के लिए आधी रात्रि में प्रासाद की खिड़की पर रहकर देखो। सा संन्यस्ताभरणमबला पेलवं धारयन्ती, चीताहारा नयनसलिलैराप्लुतापाण्डुगण्डम् । शय्योत्सनो निहितमसःखदुःखेन गात्र, स्वामप्यन्तर्विचलितति तां दशां नेतुमर्हेत् ॥५२॥ सेति । अबला न विद्यते बलं यस्याः सा दुर्बला । पीताहारा त्यक्तजेमना । 'जेमनं लेह आहारः' इत्यमरः । संन्यस्ताभरणं त्यक्ताभरणम् । पेलब कृशम् । 'पेलवं विल तनु' इत्यमरः । पेशालमिति वा पाठः । पेशालं कोमलम् | 'कोमल मृदु पेशसम' इति धनञ्जयः। नयनसलिल: अश्रूषकः । झाप्लुतापायुगण्डम् आप्लुतावाद्रिती आराण्ड ईषसाण्डू गण्डो यस्य तत् तथोक्तम् । 'आप्लतः स्नातके स्नाने' इति विश्वः । शय्योत्सङ्ग शयनतले । दुःखदुःखेन दःखप्रकारेण । "रिदगुणस्सदृशः' इत्यादिना द्विभक्तिः । असकृत् बनेकशः I निहित विन्यस्तम् । गात्रं शरीग्म् । धारयन्ती वहन्ती । सा स्वरसखी। अन्तपिचलिततिम् अन्तः प्रकम्पित धर्यम् 'धतिर्धारणधैर्ययोः' इत्यमरः । त्वामपि भवातमपि । ता बशा तदवस्थाम् । ने प्रापयितुम् । अत योग्या भवेत् । तां दृष्ट्वा त्वमपि दु:खितो भवसीत्यर्थः ।।५२॥ अम्बय वाताहारा, सन्यस्ताभरणं पेशवं नयनसलिलेः आप्लुतापाण्डगई,

Loading...

Page Navigation
1 ... 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337