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श्रीमाणिक्यनन्दिस्वामिविरचिते परीक्षामुखे –
ही उनकी स्तुतिरूप मंगल हुप्रा । प्रमाणाभास हरि-हरादिक ॥
प्रमाणस्य लक्षणम्, प्रमाण का लक्षण -
स्वापूर्वार्थध्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् ॥ १ ॥ अर्थ - अपना और अपूर्वार्थ का निश्चायकज्ञान प्रमाण कहलाता 1 संस्कृतार्थ – यत्स्वमन्यपदार्थान्वा विजानाति तत् प्रथवा यत् स्वस्वरूपस्य पदार्थान्तरस्वरूपस्य वा निर्णयं विदधाति तदेव प्रमाणं ( सम्यग्ज्ञानं ) प्रोच्यते ।
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तथा चानुमानम् - प्रमाणं स्वापूर्वार्थ व्यवसायात्मकज्ञानमेव, प्रमाणत्वात्, यत्तु स्वापूर्वार्थ व्यवसायात्मकज्ञानं न भवति तन्न प्रणाणं, यथा संशयादिः घटादिश्च प्रमाणं च विवादापन्नं, तस्मात्स्वापूर्वार्थ व्यवसायात्मकज्ञानं प्रमाणम् ॥ १ ॥
विशेषार्थ – जो अपने आपको जानता है और अन्य
प्रमाणलक्षणका रकसूत्र नं० २ के पदों का सार्थक्य
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१- - अज्ञानरूप सन्निकर्ष, कारकसाकल्य और इन्द्रियप्रवृत्ति के प्रमाणता के निराकरण के हेतु ज्ञानपद दिया गया है ।
२- निर्विकल्पकज्ञान को प्रमाणता के निराकरण के हेतु व्यवसायपद दिया गया है।
३ - विज्ञानाद्वैतवाद, ब्रह्माद्वैतवाद तथा शून्यैकान्तवाद को प्रमाणता के निराकरण के हेतु श्रर्थपद दिया गया है ।
४—–गृहीतग्राही धारावाही ज्ञान को प्रमाणता के खण्डन हेतु अपूर्वविशेषण दिया गया है ।
५ -- अस्वसम्वेदनज्ञान को प्रामाणिकता के निषेध के हेतु प्रमाण के लक्षण में स्वविशेषण दिया गया है।