Book Title: Pariksha Mukha
Author(s): Manikyanandiswami, Mohanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 114
________________ श्रीम!। गक्यन न्दिस्वामिविरचिते परीक्षामुखे – संस्कृतार्थ --- सांख्याभिमतं सामान्यतत्त्वं सोगताभिमतं विशेषतत्त्वं, योगाभिमतं परस्परनिरपेक्षसामान्य विशेषरूपतत्त्वञ्च विषयाभासो भवति, तथा प्रतिभासनाभावात्, अर्थक्रिया कारित्वाभावाच्च ॥६२॥ स्वयं समर्थ पदार्थ के निरपेक्ष कार्यकारित्व मानने से हानिसमर्थस्य करणे सर्वयोत्पतिरमपेक्षास्वात् ॥६३॥ अर्थ-यदि वह पदार्थ समर्थ होता हुआ कार्य करता है तो निरन्तर ही कार्य की उत्पत्ति होना चाहिये, क्योंकि वह अपने कार्य में किसी की मदद नहीं चाहता है जिससे उसको निरन्तर कार्य करना चाहिये । ११८ " संस्कृतार्थ - किञ्च तदेकान्तात्मकं तत्त्वं स्वयं समर्थमसमर्थ वा कार्यकारि स्यात् ? तत्र समर्थत्वे कि निरपेक्षं कार्यं कुर्यात्सापेक्षम्बा ? न तावत्प्रथमः पक्षः । निरपेक्षस्य समर्थतत्त्वस्य कार्यजनकत्वे सर्वदा कार्योत्पत्तिप्रसङ्गस्य दुर्निवारत्वात् ॥ ६३ ॥ हानि स्वयं समर्थ पदार्थ के सहकारिसाहाय्य से कार्यकारित्व मानने परापेक्षणे परिणामित्वमन्यथा तदभावात् ॥६४॥ करें, तो उन्हें श्रयं - यदि सामान्यादि परपदार्थ की अपेक्षा परिणामी मानना पड़ेगा। क्योंकि वे पहले कार्य नहीं करते थे, जब सहकारी मिला तब कार्य किया । इससे वे पहिले स्वयं असमर्थ थे, सहकारी के निमित्त से नवीन सामर्थ्य पाया । परिणामीपने के बिना यह हो नहीं सकता कि एकाकी तो कार्य नहीं करे और मिल कर कार्य करें । संस्कृतार्थ - नापि द्वितीयः पक्षः । सापेक्ष समर्थ तत्त्वस्य कार्यजनक - त्वाभ्युपगमे परिणामित्वप्रसङ्गात्, सामान्य विशेषात्मकत्वसिद्धेः, एकतत्त्वस्य परिणामित्वाभावे कार्यजनकत्वायोगात् । स्वयं असमर्थ पदार्थ के कार्यकारित्वं मानने से हानिस्वयमसमर्थ स्वाकार कस्मात् पूर्वत् ॥ ६५ ॥

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