Book Title: Pariksha Mukha
Author(s): Manikyanandiswami, Mohanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 130
________________ आगान का लक्षण प्राप्त के वचनों से होने वाले अर्थज्ञान को प्रागम कहते हैं। यहां 'प्रागम' यह लक्ष्य है और शेष उसका लक्षण | 'प्रर्थज्ञान को श्रागम कहते हैं' इतना ही यदि आगम का लक्षण कहा जाय तो प्रत्यक्षादिक में प्रतिव्याप्ति है, क्योंकि प्रत्यक्षादिक भी अर्थज्ञान हैं । इसलिये 'वचनों से होने वाले' यह पद - विशेषण दिया है । वचनों से होने वाले प्रर्थज्ञान को ' श्रागम का लक्षण कहने में भी स्वेच्छापूर्वक ( जिस किसी के ) कहे हुये भ्रमजनक वचनों से होने वाले अथवा सोये हुये पुरुष के और पागल प्रादि के वाक्यों से होने वाले 'नदी के किनारे फल हैं' इत्यादि ज्ञानों में प्रतिव्याप्ति है, इसलिये 'प्राप्त' यह विशेषण दिया है । 'प्राप्त के वचनों से होने वाले ज्ञान को' श्रागम का लक्षण कहने में भी प्राप्त के वाक्यों फो सुनकर जो श्रावण प्रत्यक्ष होता है उसमें लक्षण प्रतिव्याप्त है, व्रत: 'अर्थ' यह पद दिया है । 'अर्थपद तात्पर्य में रूढ़ है। अर्थात्-प्रयोजनार्थ क है क्योंकि 'अर्थ ही तात्पर्य ही वचनों में है. ऐसा श्राचार्यवचन है । मतलब यह है कि यहां प्रर्थ पद का अर्थ तात्पर्य विवक्षित है, क्योंकि वचनों में वात्पर्य ही होता है । इस तरह प्राप्त के वचनों से होने वाले प्रर्थं (तात्पर्य) ज्ञान को जो श्रागम का लक्षण कहा गया है वह पूर्ण निर्दोष है । जैसे - " सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः " [त. सू. १-१] 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों की एकता ( सहभाव) मोक्ष का मार्ग है' इत्यादि वाक्यार्थज्ञान। सम्यग्दर्शनादिक सम्पूर्ण कर्मों के क्षयरूप मोक्ष का मार्ग अर्थात् उपाय है-न कि 'मार्ग हैं | अतएव भिन्न भिन्न लक्षण वाले सभ्यग्दर्शनादि तीनों मिलकर ही मोक्ष का मार्ग हैं, एक एक नहीं, ऐसा अर्थ 'मार्ग' इस एकवचन के प्रयोग के तात्पर्य से सिद्ध होता है। यही उक्त वाक्य का अर्थ है । और इसी अर्थ में प्रमाण से संशयादिक की निवृत्ति रूप प्रमिति होती है । ( १३४ )

Loading...

Page Navigation
1 ... 128 129 130 131 132 133 134 135 136