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असाधारणधर्मवचन के लक्षणत्व का निर्णय
'असाधारणधर्म के कथन करने को लक्षण कहते हैं' ऐसा किन्हीं ( नैयायिक और हेमचन्द्राचार्य ) का कहना है; पर वह ठीक नहीं है । क्योंकि लक्ष्यरूप धर्मिवचन का लक्षणरूप धर्मवचन के साथ सामानाधिकरण्य ( शाब्दसामानाधिकरण्य) के प्रभाव का प्रसंग आता है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
यदि श्रसाधारणधर्म को लक्षण का स्वरूप माना जाय तो लक्ष्यवचन और लक्षणवचन में सामानाधिकरण्य नहीं बन सकता । यह नियम है कि लक्ष्य - लक्षणभावस्थलमें लक्ष्यवचन और लक्षणवचनमें एकार्थप्रतिपादकत्वरूप सामानाधिकरण्य प्रवश्य होता है ।
जैसे 'ज्ञानी जीवः' अथवा 'सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम्' इनमें शाब्द समानाधिकरण्य है । यहाँ 'जीव' लक्ष्यवचन है; क्योंकि जीव का लक्षण किया जा रहा है । और 'ज्ञानी' लक्षणवचन है; क्योंकि वह जीव को अन्य अजीवादि पदार्थों से व्यावृत्त करता है । 'ज्ञानवान् जीव है' इसमें किसी को विवाद नहीं है ।
अब यहाँ देखेंगे कि 'जीव' शब्द का जो अर्थ है वही 'ज्ञानी' शब्द का अर्थ है । और जो 'ज्ञानी' शब्द का अर्थ है वही 'जीव' शब्द का है । • अतः दोनों का वाच्यार्थ एक है। जिन दो शब्दों पदों का वाच्यार्थ एक होता है उसमें शाब्दसामानाधिकरण्य होता है । जैसे 'नीलं कमलम्' यहाँ स्पष्ट है । इस तरह 'ज्ञानी' लक्षणवचन में और 'जीव' लक्ष्य वचन में एकार्थप्रतिपादकत्वरूप शाब्दसामानाधिकरण्य सिद्ध है। इसी प्रकार 'सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम्' यहाँ भी जानना चाहिये ।
इस प्रकार जहाँ कहीं भी निर्दोष लक्ष्यलक्षणभाव किया जावेगा वहां सब जगह शान्दसामानाधिकरण्य पाया जायेगा । इस नियम के अनुसार 'असाधारणधर्मवचनं लक्षणम्' यहाँ श्रसाधारणधर्म जब लक्षण होगा तो लक्ष्य धर्मी होगा और लक्षणवचन धर्मवचन तथा लक्ष्यवचन
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