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न्यायशास्त्रे सुबोधटीकायां प्रथमः परिच्छेदः ।
संस्कृतार्थ – 'घटमहमात्मना वेधि' इति प्रतीती 'अहम्' 'श्रात्मना ' वेति पदाभ्यां स्वव्यवसायो जायते तथा घटम्पदेन परपदार्थ बोघो जायते। तथैव प्रमाणेन सर्वत्र स्वस्य परस्य वा बोधो जायते । श्रतएव प्रमाणं स्वपर निश्चायकं निगदितम् ॥ ८ ॥
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विशेषार्थ - मैं ( कर्ता ) घट को (कर्म) ज्ञान से (करण) और जानता हूँ (क्रिया) । ज्ञान के समय सर्वत्र इन चार बातों की प्रतीति होती है। उनमें 'मैं' करके अपनी प्रतीति होती है, इसी को ज्ञान के स्वरूप का निश्चय कहते हैं। क्योंकि यह आत्मा की प्रतीति है और वह खात्मा ज्ञानस्वरूप है । इस कारण 'में' पद के द्वारा ज्ञान अपने आप को जानता है । 'घट को इस पद के द्वारा अपूर्वार्थ ( परपदार्थ ) की प्रतीति होती है । 'जानता हूँ' यह क्रिया की प्रतीति है, जिसे प्रमिति; प्रज्ञान निवृत्ति; ज्ञप्ति वा प्रमाणफल भी कहते हैं । और 'ज्ञान से' इस पद के द्वारा करणरूप प्रमाण की प्रतीति होती है जिसका फल अज्ञाननिवृत्ति है ॥ ८ ॥
परव्यवसाय कतामात्रस्य खंडनम्, केवल परव्यवसाय का खंडन -
कर्मवत्कर्तृ करणक्रिया प्रतीतेः ॥ ९ ॥
अर्थ- - प्रमाण के द्वारा जैसे घट पट इत्यादि रूप कर्म का बोध होता है उसी प्रकार कर्त्ता (में) करण (अपने द्वारा) और क्रिया ( जानता हूँ ) का भी बोध होता है । प्रर्थात् प्रमाण के द्वारा जैसे में घटपटादिक को जानता हूँ ऐसी प्रतीति होती है उसी प्रकार कर्त्ता, करण और क्रिया के प्रति भी इन कर्ता आदिक को भी जानता हूँ ऐसी प्रतीति होती है, इसमें बाधा नहीं, अनुभवसिद्ध है । इसलिये प्रमाण को केवल परव्यवसायक मानना ठीक नहीं है ॥ ६ ॥
कर्मणो
संस्कृतार्थ - प्रमाणेन यथा घटपटादिरूपस्य बोषो जायते तथैव कर्त्तुः, करणस्य, क्रियाया वा बोधो जायते । प्रथ