________________
न्यायशास्त्री सुबोधटीकायां प्रथमः परिच्छेदः।
२५
अपूर्वार्थस्य समर्थनम्, अपूर्वार्थ का समर्थन या लक्षण
अनिश्चितो ऽ पूर्वार्थः ॥ ४ ॥
अर्थ-जिस पदार्थ का पहिले कभी किसी सच्चे ज्ञान से निर्णय नहीं हुआ हो उसे अपूर्वार्थ कहते हैं। प्रमाण ऐसे अपूर्वार्थ का निश्चय करता है। अतः जो ज्ञान किसी प्रमाण से जाने हुये पदार्थ को जानता है वह प्रमाण नहीं होता, क्योंकि उसने उस पदार्थ का निश्चय नहीं किया, किन्तु निश्चित हो को जाना है ॥ ४ ॥
संस्कृतार्थ-कस्माच्चिदपि सम्यग्ज्ञानाद् यस्य पदार्थस्य कदापि निर्णयो न जातः सः अपूर्वार्थो निगयते। प्रमाणं तमेव निश्चिनोति।। प्रतो यज्ज्ञानं कस्माच्चित्प्रमाणाद् विज्ञातं पदार्थ विजानाति तन्न प्रमाणम् । यतस्तेन तस्य पदार्थस्य निश्चयो न विहितः, किन्तु निश्चित्तमेव विज्ञातम् ॥ ४॥
विशेषार्थ--ईहाज्ञान यद्यपि अवग्रहादिक के द्वारा सात पदार्थ को ही जानता है परन्तु अवाहादिक जिस विशेष को नहीं जान सकते हैं उस अवान्तर विशेष ( अन्यावशेष ) को जानता है इसलिये ईहा का विषय अपूर्वार्थ ही है ॥४॥
अपूर्वार्थस्य लक्षणान्तरम्, अपूर्वा का दूसरा लक्षणदृष्टोऽपि समारोपासादया ।।५।।
अर्थ-किसी प्रमाण से जाने हुये पदार्थ के विषय में भी जब संशय, विपर्यय या अनध्यवसाय हो जाता है तब वह पदार्थ भी अपूर्वार्थ कहा जाता है। और उसका जानने वाला ज्ञान भी प्रमाणस्वरूप होता है |
संस्कृतार्थ-केनापि प्रमाणेन विज्ञातेऽपि पदार्थ यदा संशयो, लिएইজঃ,
নেত্ৰাণী যা সব দা সুইন লিকা, না খন্ড बेदाई शानमणि प्रमाणस्वरूप भवेत् ।। ५ ।।