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श्रीमाणिक्यनन्दिस्वामिविरचिते परीक्षामुखे
प्रमाणेन यथा 'अहं घटपटादिकं (कर्म) जाने' इति प्रतीति जायते तथा कर्तृ करणक्रियाः प्रत्यपि 'अहं कादिकं जाने' इति प्रतीति जर्जायते, नात्र काचिद् बाधा, अनुभवसिद्धं विद्यते ॥६॥
विशेषार्थ- एक ही ज्ञान में कर्ता आदि अनेक कारकों की व्यवस्था भेदविवक्षा से घट जाती है। क्योंकि जैन सिद्धान्त स्याद्वाद है । विभिन्न अपेक्षाकृत वर्णनसे विरोध नहींाता, सर्वथा एकान्तवादमें ही यह विरोध सम्भव होता है। इस विवेचन से प्रमाण के विषय में नैयायिक और मीमांसक की मान्यताओं का खण्डन किया गया है, जो प्रमेयरत्नमाला अन्य में स्पष्ट है ॥ ६॥
शब्दोच्चारण बिना ही स्वव्यवसाय का स्पष्टीकरणशब्दानुच्चारणेऽपि स्वस्यानुभवनमर्थवत् । १० ॥
अर्थ-जैसे प्रत्यक्ष रखी हुई घटपटादि वस्तुओं का और परोक्ष: मोदक आदि वस्तुओं का तवाचक शब्द के उच्चारण बिना ही विजार या अकलोकन मात्र से ही ज्ञान में तदाकार अनुभव हो जाता है कि यह अमुकवस्तु है और यह अमुकवस्तु । उसी प्रकार 'मैं यह करूंगा' 'मेरे द्वारा यह हुआ' इत्यादि ज्ञान (विचार) में 'मैं और मेरे द्वारा' इत्यादि रूप से आत्मा का बोध (अनुभव) होता है, वह शब्दोच्चारण बिना भी होता है ।॥ १० ॥
संस्कृतार्थ- यथा प्रत्यक्षाणां पटपटादीनां वस्तूनां, परोक्षाणां मोदकादीदाम्बा तद्वाचकशब्दानुज्वारणेऽपि विचारमात्रेणेवालोकनमानेणध वा ज्ञाने तदाकार अनुभवो जायते, यदिदममुकवस्तु विद्यते; इदं चामुकवस्तु तथा 'अहमिदं करिष्ये' 'इदं मया जातम् इत्यादि विचारे (जाने) 'अहं, मया' इत्यादि रूपेण यःस्वदोषः जायते, सः शब्दोच्चारणं विलंब जायते ॥ १० ॥
विशेषार्थ-इस विवेचन से 'कर्ता प्रादि का ज्ञान शलोचारण से ही होता है, इस प्रकार मानने वालों की मान्यता का