Book Title: Pariksha Mukha
Author(s): Manikyanandiswami, Mohanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 69
________________ न्यायशास्त्रे सुबोधटीकायां तृतीयः परिच्छेदः । के उदय की भूतता के विरुद्ध उत्तरचर कृतिका के उदय की उपलब्धि है । इसलिये यह हेतु 'अविरुद्धोत्तरचरोपलब्धिहेतु' कहलाता है ।।६।। __ संस्कृतार्थ-मुहूर्तात्प्राक् भरणे रुदयो व्यतीतः, कृतिकोदयात् । अत्र कृतिकोदयनामकोत्तरचरहेतुः भरण्युदयभूततारूपसाध्यं साधयति । अर्थादत्र भरण्यु दयभूततायाः अविरुद्धोत्तरचरस्य कृतिकोदयस्योपलब्धि विद्यते । अतोऽयं हेतुः 'अविरुद्धोत्तरचरोपलब्धिहेतुः' निगद्यते ॥६॥ अविरुद्धसहचरोपलब्धि (सहचरहेतु) का उदाहरणअस्त्यत्र मातुलिगे रूपं रसात् ॥६६॥ अर्थ- इस बिजौरे में रूप है, क्योंकि रस पाया जाता है। यहां रसनामक सहचरहेतु रूपनामक साध्य को साधता है। अर्थात् यहां रूप का अविरुद्ध सहचर रस मौजूद है । इसलिये यह हेतु 'अविरुद्धसहचरोपलब्धिहेतु' कहलाता है ॥६६।। संस्कृतार्थ- अस्त्यत्र मातुलिंगे रूपं, रसात् । अत्र रसनामकसहचरहेतुः रूपनामकसाध्यं साधयति । अर्थादन रूपविरुद्धसहचरस्य रसस्योपलब्धि विद्यते । अतोऽयं हेतुः 'अविरुद्धसहचरोपलब्धिहेतुः प्रोच्यते ॥६६॥ विरुद्धोपलब्धिभेदाः, विरुद्धोपलब्धि के भेदবিৰণঞ্জি: সরিজে না ।। संस्कृतार्थ-प्रतिषेधसाधिकाया विरुद्धोपलब्धेः षड् भेदा विद्यन्ते । विरुद्धच्याप्योपलब्धिः, विरुद्धाकार्योपलब्धिः, विरुद्धकारणोपलब्धि, विरुद्धपूर्वचरोपलब्धिः, विरुद्धोत्तरचरोपलब्धिः, विरुद्धसहचरोपलब्धिश्चेति ॥६॥

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