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न्यायशास्त्र सुबोधटीकायां तृतीयः परिच्छेदः ।
भावस्य कार्यस्य नीरोगचेष्टायाः अनुपलब्धि विद्यते । श्रतोऽयं हेतुः विरुद्ध कार्यानुपलब्धि हेतु जतिः ||३||
विरुद्ध कारणानुपलब्धि का उदाहरण
अस्स्यत्र देहिनि दुःखमिष्टसंयोगाभावात् ॥८४॥ अर्थ - इस प्राणी में दुःख हैं, क्योंकि इष्टसंयोग का अभाव है । यहां दुःख के विरोधी सुख के कारण इष्टसंयोग का प्रभाव दुःख के सद्भाव को सिद्ध करता है, इसलिये यहां यह हेतु विरुद्धकारणानुपलब्धिहेतु हुआ ||८४||
संस्कृतार्थ - श्रस्त्यत्र देहिनि दुःखमिष्टसंयोगाभावात् । दुःख विरोधिनः सुखकारणस्येष्टसंयोगस्याभावो दुःखसद्भावमेव साधयति । अतोऽत्रायम् इष्टसंयोगाभावत्वहेतुः विरुद्धकारणानुपलब्धिहेतुरवगन्तव्यः ॥ ८४ ॥
विरुद्धस्वभावानुपलब्धि का उदाहरण
अनेकान्तात्मकं वस्त्वेकान्तस्वरूपानुपलब्ध ेः ॥५॥
अर्थ - पदार्थ अनेक धर्म वाले हैं, क्योंकि उनमें नित्य श्रादि एकान्त स्वरूप का प्रभाव है । यहां श्रनेकान्तात्मकता से विरुद्ध एकान्तात्मकता का अभाव वस्तु की अनेकान्तात्मकता को ही सिद्ध करता है । इससे यहां यह हेतु विरुद्धस्वभावानुपलब्धि हेतु हुश्रा ॥८५॥
संस्कृतार्थ – अनेकान्तात्मकं
वस्त्वेकान्तस्वरूपानुपलब्धेः । अत्रानेकान्तात्मकताया विरुद्धः एकान्तात्मकताया अभावो वस्तुनोऽनेकान्तात्मकतामेव साधयति, श्रतोऽत्रायं हेतुः विरुद्धस्वभावानुपलब्धिहेतुः प्रत्येतव्यः ॥ ८५॥
हेत्वन्तरों का पूर्वोक्त हेतुश्नों में अन्तर्भाव
परम्परया सम्भवत्साधन मन्त्रे यान्तर्भावनीयम् ॥६६॥ |