Book Title: Panchsaptati Shatsthan Chatushpadi
Author(s): Rajendrasuri, Yatindravijay
Publisher: Ratanchand Hajarimal Kasturchandji Porwad Jain
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सारांश ४ उल्लास] पञ्चसप्ततिशतस्थानचतुष्पदी. ३९ १०१ जिनवाणीना पांत्रीश अतिशय
१-संस्कृतादि लक्षण युक्त होय.२-मेघ सरखी गंभीर होय. ३-ग्रामीण तुच्छ भाषाथी रहित होय. ४-ऊंचा स्वभाववाली होय. ५-प्रतिशब्द स्पष्ट संभलाय. ६-वक्रता दोष रहित सरल होय. ७-मालकोशादि राग युक्त होय. ८-महान् अर्थनी धारक होय. ९-पूर्वापर विरोधथी रहित होय. १०-सन्देह रहित होय. ११-शिष्टपुरुषोना वचननी सूचनारी होय. १२-देश कालानुसारिणी होय. १३-पर दूषणने प्रगट करनारी न होय. १४-श्रोताओना हृदयने आनंद आपनारी होय. १५-परस्पर पद अने वाक्योना अनुसंधानवाली होय. १६-प्रतिपाद्य ( कहेवा योग्य) विषयने ओलंघनारी न होय. १७-अमृतथी अधिक मधुर होय. १८-स्वप्रशंसा अने परनिन्दाथी रहित होय.१९-सारा संबन्ध अने अधिकारवाली होय, तथा अक्षर, पद, वाक्य अने वर्ण स्पष्ट जणावनारी होय. २०-सत्त्वप्रधान अने साहस युक्त होय. २१-कारक, काल, वचन, अने लिंगादि सहीत होय. २२-अखंडनीय विषयवाली होय. २३-प्रतिपाद्य अर्थ विशेषनी साधनारी होय. २४-अनेक वस्तु समुदायनो विचित्र वर्णन करनारी होय.२५-पर मर्मने उघाडनारी न होय. २६-विभ्रमादि दोष रहित होय. २७-विलम्ब रहित होय. २८-वक्तानी अनुपम शक्तिने प्रगट करनारी होय. २९-सांभलनाराओने खेद आपनार न होय. ३०-उत्सुकता ( उतावलियापणा )थी रहित होय. ३१-धर्मार्थरूप