Book Title: Panchsaptati Shatsthan Chatushpadi
Author(s): Rajendrasuri, Yatindravijay
Publisher: Ratanchand Hajarimal Kasturchandji Porwad Jain

View full book text
Previous | Next

Page 151
________________ १२८ श्रीपञ्चसप्ततिशतस्थानचतुष्पदी. चतुर्थ वैकक्षिका संघाटिका, स्कंधकरणी इग्यार । मुनि उपकरण चोलपट्ट विन, साडीयुत निरधार ॥४०८॥ उपकरण साध्वी तणा, पच्चीस नियमा जान । प्रमाण एहनो जानिये, शास्त्रतणे अनुमान ॥४०९ ॥ १३४-१३५ चारित्र अने तत्वोनी संख्यासामायिक छेदोपस्थापन परिहारविशुद्ध । सूक्ष्मसंपराय तिम वलि, यथाख्यात गुण लुद्ध ॥४१०॥ चारित्र पांच ए ऋषभने, अने वीरने होय । छेद परिहार विन शेषने, तीन कहे जिन जोय ॥४११॥ तीन नव तत्त्व सर्वने, देव गुरू ने धर्म । जीव अजीव पुन्य पाप, आश्रव बंध सुमर्म ॥ ४१२॥ संवर निर्जरा मोक्ष अरु, नवधा तत्त्वज होय । अवांतर भेद अनेक छ, फेर-फार नहीं कोय ॥ ४१३॥ १३६-१३७ सामायिक अने प्रतिक्रमण संख्या सम्यक्त्व श्रुत सामायिक, देश सर्वविरति चार । सहु जिनवरना तीर्थमें, सरिखा एह विचार ॥४१४ ॥ देवसि राइ पाक्षिक अरु, चातुर्मासिक जान । सांवत्सरिक पांच ए, प्रतिक्रमण परमान ॥४१५ ॥ प्रथम चरमने पांच हु, अजितादिकने दोय । ते पण कारणे प्रथम दो, अकारणे नवि होय ॥४१६॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202