Book Title: Panchsangraha Tika Part_4
Author(s): Chandrashi Mahattar, Malaygiri
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj
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पंचसं०
टीका
१६६३॥
संप्रति दर्शनावरणस्य बंधोदयसत्तास्थानानि संवेधतो गुणस्थानकेषु चिंतयन्नाद
॥ मूलम् ॥ - मिसासायसेसु । नवबंधुवलख्खिया न दो जंगा || मीसा न य नियहीजा | खब्बंधेरा दोदोन ॥ ए७ ॥ व्याख्या - दर्शनावरणस्य मिथ्यादृष्टौ सासादने च नववंधोपलक्षितौ द्दौ गौ, तद्यथा - नवविधो बंधः, चतुर्विध नदयः, नवविधा सत्ता, एष विकल्पो निज्ञेदयाजावे. अथवा नवविधो बंधः पंचविध नदयः, नवविधा सत्ता, एष विकल्पो निज्ञेदयकाले. तथा मिश्रदृष्टेः सम्यग्मिथ्यादृष्टेरारज्यापूर्वकरण गुणस्थानकस्य प्रथमं जागं यावत् पडूबंधेन प्रत्येकं छौ हौ जंगौ भवतः, तद्यथा - षड्विधो बंधश्वतुर्विध नदयो नवविधा सत्ता. अथवा बडूविधो बंधः पंचविध नदयो नवविधा सत्ता ॥ ए७ ॥
I
॥ मूलम् ॥ चनबंधे नव संते । दोन्नि अपुवा न सुहुमरागं जा || अब्बंधे नव संते । वसंतो होंति दो जंगा ॥ ए८ ॥ व्याख्या - अपूर्व करणाहायाः संख्ये यतमे जागे निशप्र चलयो वैधव्यवच्छेदादूर्ध्वमारज्योपशमश्रेण्यां सूक्ष्मसंपरायं यावच्चतुर्बंधे नवकसत्तायां च दौ नंगी जवतः, तद्यथा - चतुर्विधो बंधश्चतुर्विध नदयो नवविधा सत्ता अथवा चतुर्विधो बंधः
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भाग ४
॥१३६३
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