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लग-वाहिल्लायवर्णन दुर्निवारनयानीकविरोधध्वंसनौषधिः । स्यात्कारजीविता जीयाज्जैनी सिद्धान्तपद्धतिः ।।२।। सम्यग्ज्ञानामलज्योतिर्जननी द्विनयानया । अथातः समयव्याख्या संक्षेपेणाऽभिधीयते ।।३।। पंचास्तिकायषद्रव्यप्रकारेण प्ररूपणम् । पूर्व मूलपदार्थानामिह सूत्रकृत्ता कृतम् ।।४।। जीवाजीवद्विपर्यायरूपाणां चित्रवर्मनाम् । ततो नवपदार्थानां व्यवस्था प्रतिपादिता ।।५।। ततस्तत्त्वपरिज्ञानपूर्वेण त्रितयात्मना । प्रोक्ता मार्गेण कल्याणी मोक्षप्राप्तिरपश्चिमा ।।६।।
( अब टीकाकार आचार्यदेव श्लोक द्वारा जिनवाणी की स्तुति करते हैं) श्लोकार्थ-स्यात्कार जिसका जीवन है, जो नयसमूह के दुर्निवार विरोध का नाश करने वाली औषधि है ऐसी जैनी ( जिनभगवान की ) सिद्धान्तपद्धति जयवन्त हो ! ।। २ ।।
( अब टीकाकार आचार्य इस पंचास्तिकायप्राभृत नामक शास्त्र की टीका रचने की प्रतिज्ञा करते है)
श्लोकार्थ-अब यहाँ से, जो सम्यग्ज्ञानरूपी निर्मल-ज्योतिकी जननी है ऐसी द्विनयाश्रित ( दो नयों का आश्रय करनेवाली ) समयव्याख्या ( समयव्याख्या नामक टीका ) संक्षेप से कही जाती है || ३॥
(अब, तीन श्लोकों द्वारा टीकाकार आचार्यदेव अत्यन्त संक्षेप में यह बतलाते हैं कि इस पंचास्सिकायप्राभृत नामक शास्त्रमें किन-किन विषयों का निरूपण है)
श्लोकार्थ—यहाँ प्रथम सूत्रकर्ता ने मूल पदार्थों का पंचास्तिकाय एवं षड्द्रव्य के प्रकार से प्ररूपण किया है ।। ४ ।।
श्लोकार्थ—पश्चात् ( दूसरे अधिकार में ), जीव और अजीव-इन दो की पर्यायोंरूप नव पदार्थों की—कि जिनके वर्त्म अर्थात् कार्य भिन्न-भिन्न प्रकार के हैं उनकी-व्यवस्था प्रतिपादित की है ।। ५ ।।
श्लोकार्थपश्चात् ( दूसरे अधिकारके अन्तमें ), तत्त्वके परिज्ञान पूर्वक ( पंचास्तिकाय, षद्रव्य तथा नव पदार्थों के यथार्थ ज्ञानपूर्वक ) त्रयात्मक मार्ग से ( सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मक मार्ग से ) कल्याणस्वरूप उत्तम मोक्षप्राप्ति कही है ।। ६ ।।