Book Title: Padmavati Purval Digambar Jain Jati ka Udbhav aur Vikas Author(s): Ramjit Jain Publisher: Pragatishil Padmavati Purval Digambar Jain Sangathan Panjikrut View full book textPage 9
________________ पढ़कर बोले कि आपने तो सारा इतिहास तैयार कर रखा है, अब मुझे क्या करना है, केवल इसके पॉइन्टस बढ़ाने हैं। उन्होंने तुरन्त उसकी फोटोस्टेट कराई और फिरोजाबाद ले गये। बात गई-आई हो गई। एकाध बार मैंने पत्र भी भेजा परन्तु कोई उत्तर नहीं आया, मैं भी शान्त बैठ गया। ___ कुछ समय बाद मैंने स्वयं ही लिखने का विचार किया। किताबें देखीं, अभिनन्दन ग्रन्थ देखे, जहां जो मिला, नोट किया, कुछ लोगों के पते मिले, पत्र-व्यवहार किया। इतना करने के बाद इतिहास तैयार कर लिया। विषय को अधिक न बढ़ाते हुए, इतना ही कहूंगा कि काफी समय बाद इतिहास तैयार कर लिया। एक दिन मैं फिरोजाबाद गया और श्री अनूपचन्द जैन एडवोकेट के यहां से बहुत समय पहिले कलकत्ते से प्रकाशित पद्मावतीपुरवाल जैन डायरेक्ट्री प्राप्त हुई। इतिहास तैयार हो गया। मोटे-मोटे दो रजिस्टरों में तैयार करके प्राचार्य जी को दे दिए। फिर क्या हुआ, पता नहीं चला। न जाने किस प्रकार सूचना दिल्ली पहुंची। वहां के एक प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता श्री प्रतापचन्द जी का पत्र आया कि प्रा. नरेन्द्रप्रकाश जी के माध्यम से पद्मावती पुरवाल जाति का आपके द्वारा तैयार किया इतिहास हमें प्राप्त हुआ। अपेक्षित परिवर्द्धन एवं संशोधन के साथ हम उसे प्रकाशित करना चाहते हैं, कृपा अनुमति प्रदान करें। यह इतिहास तैयार करके आपने एक बड़े अभाव की पूर्ति की है, आपकी इस कृपा के लिए हम अनुगृहीत हैं। उनका पत्र पढ़कर हमें बहुत सन्तोष हुआ। अपनी कृति को कौन प्रकाशित हुआ नहीं देखना चाहता! ग्वालियर में मुनिश्री 108 पुलकसागर जी महाराज के सानिध्य में विद्वत गोष्ठी 7 व 8 सितम्बर 2002 को थी। प्राचार्य श्री नरेन्द्रप्रकाश जी ग्वालियर आये। चर्चा हुई। उन्होंने भी बताया कि इतिहास दिल्ली के श्री प्रतापचन्द जी को सौंपा है, वह प्रकाशित हो रहा है। बस यही कहानी है पद्मावतीपुरवाल जाति के इतिहास के प्रकाशन की। मेरा परिचय पद्मावतीपुरवाल समाज अथवा किसी महानुभाव से नहीं है। व्यक्तिगत परिचय केवल प्राचार्य जी से ही है। अतः इतिहास में जो ८.Page Navigation
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