Book Title: Ogh Niryukti
Author(s): Bhadrabahuswami, Gyansagarsuri, 
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund

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Page 407
________________ श्रीमती मोपनियुक्तिः ॥३८९॥ जिनानां-जिनकल्पिकानां द्वादशरूपाणि उक्तलक्षणानि भवन्ति, आर्याणां भिक्षुणीनां पञ्चिविंशतिरूपोपधिवक्ष्य स्थविरकल्पि माणः, अत उर्ध्वमुपग्रहोपधिर्वेदितव्यः ॥९९६॥ स जिनकल्पिकस्थविरकल्पिकोपधिः सर्व एव त्रिधा भवति, कानामुपधितत्र जिनकल्पिकानामाह गणना । तिण्णेव य पच्छागा, पडिग्गहो चेव होइ उक्कोसो । गुच्छगपत्तगठवणं, मुहणंतगकेसरि जहण्णो ॥९९७॥ त्रयः प्रच्छादकाः पतद्ग्रहश्च, एष उत्कृष्टः प्रधानश्चतुर्विधोऽप्युपधिः, गोच्छकः पात्रकस्थापनं मुखानन्तकं | मुखवत्रिका पात्रकेसरी एष चतुर्विधो जघन्योऽप्रधानः, पात्रबन्धः पटलानि रजस्वागं रजोहरणमित्येष चतुर्विधोऽपि मध्यमः ॥९९७।। स्थविरकल्पिकानामाह पडलाई रयत्ताणं, पत्ताबंधो य चोलपट्टो य । रयहरण मत्तओऽवि य, थेराणं छविहो मज्झो ॥९९८॥ एष पइविधो मध्यमः, उत्कृष्टो जघन्यश्च जिनकल्पिकवत् ॥९९८।। आर्याणां गणनाप्रमाणत ओघोपधिमाह- 1|| पत्तं पत्ताबंधो, पायट्ठवणं च पायकेसरिया । ॥३८९॥ पडलाइं रयत्ताणं, गोच्छओ पायणिज्जोगो ॥९९९।। Jain Education Intematonal For Private & Personal use only wronw.jainelibrary.org

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