Book Title: Ogh Niryukti
Author(s): Bhadrabahuswami, Gyansagarsuri, 
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund

View full book text
Previous | Next

Page 466
________________ परिशिष्ट १। ओपनियुक्तिउद्धारगाथाः ॥४४८॥ संनमहेऊ लेबो न विभूसाए वयंति तित्थयरा । सई असई दिट्ठ सई-पाहम्मे उत्रण ओ उ ॥७४॥ [६१८] आयरिए य गिलाणे पाहुणए दुल्लहे सहसलामे । संसत्तभत्तपाणे मत्तगगहणं अणुण्णाय ॥७५॥ [६५८] बाहाहि अंगुलीई व लट्ठीई व उज्जुओ ठिओ संतो । ण प्रच्छिज्ज ण दाविज्जा पच्चावाया भवे दोसा ॥७६॥ [६७२]] छकायदयावंतो वि संजओ दुल्लहं कुणई बोहिं । आहारे णिहारे दुगंछिए पिंडगहणे अ ॥७७।। [६७६] जो जह व तह व लद्धं गिहई आहारमुवहिमाई य । समण(गण) मुक्क जोगी संसारपवइ ओ भणिओ ॥७८॥ [६८७] तिविहोवधायमे परिहरमाणो गवेसए पिंड । विहा गवसणा खलु दवे मारे इमा दव्वे ॥७९॥ [६८४] जियसत्तु देवि पित्तसह पविसणं कणगपिट्टपासणया । डाहल दुच्चल पुच्छा कहणं आणा य पुरिसाणं ॥८०॥ [६८५] सीवन्निसरिसमोदगकरणं सोवन्निरुक्खहेढेसु । आगमण कुरंगाणं पसत्य अपसस्थ उवमा 3 ॥१॥ [६८६) विइयमेयं कुरंगाणं जया सीवन्नि सीदई । पुरावि वाया वायंति न उणं पुंजगपुं..गा ॥८२।। [६८७] हत्थिगहणमि गिम्हे अरह हि भरणं तु सरसीणं । अच्चुदएण णलवणा अभिरूढा गयकुलागमणं ।।८३।। [६८८] विइयमेय गयकुलाणं जहा रोहंति णलवणा । अन्नया वि झरंति सरो न एवं बहुओदगा ॥४॥ [६८९] ॥४४८|| Jain EducatioraM For Private & Personal use only lat ur.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494