Book Title: Ogh Niryukti
Author(s): Bhadrabahuswami, Gyansagarsuri,
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
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श्रीमती पनियुक्तिः ॥४३४॥
प्रायश्चित्तग्रहणविधिः ।
जह सुकुसलोऽवि विजो, अण्णस्स कहेइ अप्पणो वाही । सोऊण तस्स विज्जस्स, सोवि परिकम्ममारभइ ॥११३३॥ स्पष्टो । एवं जाणंतेणवि, पायच्छित्तविहिमप्पणो सम्मं ।
तहवि य पागडतरयं, आलोएतव्वयं हाइ ॥११३४॥ तथापि प्रकटतरमालोच्यमवश्यम् ॥११३४॥
गंतॄण गुरुसकासं, काऊण य अंजलि विणयमलं । सव्वेण अत्तसोही, कायव्वा एस उवएसो ॥११३५॥ स्पष्टा । ण हु सुज्झई ससल्लो, जह भणियं सासणे धुव(य)रयाणं ।
उद्धरियसव्वसल्लो, सुज्झइ जीवो धुयकिलेसो ॥११३६॥ यथा भणितं धुतरजसां शासने १तथा शुद्धयति ॥११३६॥
सहसा अण्णाणेण व, भीएण व पिल्लिएण व परेण ।
वसणेणायंकेण व, मूढेण व रागदोसेहि ॥११३७॥ १. • शुद्धव्यति तथा शुद्धरुद्धृतसर्वशल्यः • ॥११.३६॥ ik
॥४३४॥
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