Book Title: Ogh Niryukti
Author(s): Bhadrabahuswami, Gyansagarsuri,
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
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श्रीमती धनियुक्तिः ॥४३०॥
द्रव्यभावायतनानि।
आययणंपि य दुविहं, दव्वे भावे य होइ णायव्वं ।
दव्वमि जिणघराई, भावंमि य होइ तिविहं तु ॥११२०॥ भावे त्रिविधं ज्ञानदर्शनचारित्ररूपम् ॥११२०॥
जत्थ साहम्मिया बहवे, सीलमंता बहुस्सुया । चरित्तायारसंपण्णा, आययणं तं वियाणाहि ॥११२१॥ सुगमा । सुंदरजणसंसग्गी, सीलदरिदंपि कुणइ सीलइढं ।
जह मेरुगिरीजायं (प्र. लग्गं), तणंपि कणगत्तणमुवेइ ॥११२२॥ स्पष्टोक्तमायतनम् ॥११२२।। प्रतिसेवनाद्वारसंबन्धमाह
एवं खलु आययणं, णिसेवमाणस्स हुज्ज साहुस्स ।
कंटगपहे व छलणा, रागदोसे समासज्ज ॥११२३॥ एवमुक्तेन न्यायेनाऽऽयतनं सेवमानस्यापि कण्टकपथ इव छलना, किमासाद्य ? रागद्वेषौ समासृत्य [समासाद्य-प्राप्य] ॥११२३॥
१. • स्याऽपि साधोर्भवेच्छलना, किमासाद्य ? अत आह- रागद्वेषौ समाश्रित्य • Ioki
॥४३०॥
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