________________ प्रस्तावना है / ' बेचारा धोबी कपड़े धोना छोड़कर भाग खड़ा हुआ और परमहंस ने उसका स्थान ले लिया। सवारों के निकट आने पर और उस से उस मार्ग से जाने वाले एक मनुष्य का पता पूछने पर परमहंस ने भागते हुए धोबी की ओर संकेत कर दिया और इस प्रकार अपनी जान बचाकर गुरु के पास पहुंचा। और सब हाल सुनाते हुए तीव्र शोक के वेग से उसकी छाती फट गई और वह मर गया। हरिभद्र सूरि को अपने प्रिय शिष्यों की मृत्यु से बहुत खेद हुआ और उसका बदला लेने के लिये उन्होंने बहुत से बौद्ध पंडितों को शास्त्रार्थ में हराया और शर्त के अनुसार उन बौद्धों को तप्त तेल में डाल दिया। ____ किसी किसी का कहना है कि बौद्धों पर क्रुद्ध होकर उन्होंने आकर्षिणीविद्या के द्वारा उन्हें तप्त तैल में झोंक दिया / जब उनके गुरु को इस समाचार की सूचना मिली तो उन्होंने उनके पास क्रोध की शान्ति के लिये कुछ गाथा लिखकर भेजी, जिससे वे शान्त हुए। हरिभद्र के प्रत्येक ग्रन्थ के अन्त में 'विरह' शब्द आता है जो उनके प्रियशिष्यों के वियोग का चिह्न है।" इस कथा को पढ़कर पाठक कथाओं के ऐतिहासिक मूल्य का अनुमान लगा सकेंगे। अतः अकलङ्क की कथा के आधार पर निकलङ्क को ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं माना जा सकता। किन्तु तत्कालीन परिस्थिति, बौद्धों से मुठभेड़ और अकलङ्क के साहित्य में विशेषतया बौद्धवाद का खण्डन देखकर अकलङ्क के बौद्धमठ में अध्ययन करने की किंवदन्ती सत्य प्रतीत होती है। विलसन साहब की 'मैकेंजी कलेक्शन' नामक पुस्तक के आधार पर राईस साहब ने लिखा है कि पोनतग के बौद्धविद्यालय में अकलङ्कदेव ने शिक्षा पाई थी। शाखाथी अकलंक बौद्धविद्यालय में अध्ययन कर चुकने के बाद गृहत्यागो अकलङ्क के सामने जीवन के महान् उद्देश्य को पूरा करने की समस्या उपस्थित हुई। उस समय विद्वत्समाज में शास्त्रार्थ करने का बहुत प्रचार था और राजा तथा प्रजा दोनों ही उसमें क्रियात्मक भाग लेते थे। इन शास्त्रार्थों का फल केवल जय और पराजय ही नहीं होता था किन्तु धर्मप्रचार का यह एक मुख्य साधन समझा जाता था। ये शास्त्रार्थ बहुत करके राजसभाओं में होते थे और राजन्यवर्ग उनमें मध्यस्थ रहता था। यदि राजा बुद्धिमान शास्त्रज्ञ और विवेकी होता था तो विजयी पक्ष से प्रभावित होकर उसका धर्म स्वीकार कर लेता था और 'यथा राजा तथा प्रजा' की नीति का प्राधान्य होने के कारण प्रजा भी उसका अनुसरण करती थी। फलतः शास्त्रार्थ के द्वारा राज्य का राज्य स्वधर्मी बनाया जा सकता था। इसी लिये उस समय के वादी विद्वान् राजाओं की तरह दिग्विजय करने के लिये निकलते थे और मुख्य 2 राजसभाओं में जाकर स्वामी समन्तभद्र की तरह ललकार कर कहते थे "राजन् यस्यास्ति शक्तिः स वदतु पुरतो जैननिर्ग्रन्थवादी" चीनी यात्री फाहियान और घनत्सांग ने अपने अपने यात्राविवरण में कई शास्त्रार्थों का उल्लेख किया है। ह्यूनत्सांग सातवीं शताब्दी के मध्य में भारत आया था और बहुत समय तक नालन्दा के बौद्धविद्यापीठ में रहा था। एक बार वह भी एक शास्त्रार्थ करने के लिये गया था। नालन्दा विश्वविद्यालय का वर्णन करते हुए वह लिखता है-“सबेरे से शाम तक 1 हुएन्त्सांग का यात्राविवरण पृ. 493 /