________________ प्रस्तावना 33 हासिक व्यक्ति है और उसके सम्बन्ध की कुछ बातों का समर्थन शिलालेखों और विभिन्न ग्रन्थकारों के उल्लेखों से होता है, किन्तु दूसरे के तो पात्र भी ऐतिहासिक व्यक्ति प्रमाणित नहीं होते ___ "हरिभद्र ब्राह्मणपुत्र थे। उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि मैं जिसका कथन नहीं समझ सकूँगा उसका शिष्य हो जाऊँगा। एक समय हरिभद्र चित्तौर आये। वहाँ जिनदत्ताचार्य के संघ में याकिनी नामकी एक साध्वी रहती थी। एक दिन हरिभद्र ने याकिनी के मुख से 'चक्किदुगं हरिपणगं' इत्यादि गाथा सुनी, किन्तु उसका अर्थ न समझ सके / हरिभद्र ने साध्वी से गाथा का अर्थ पूछा तो साध्वी उन्हें गुरु के पास ले गई / गुरु जिनदत्ताचार्य ने गाथा का अर्थ समझाया। हरिभद्र ने अपनी प्रतिज्ञा की बात कही। आचार्य ने साध्वी का धर्मपुत्र हो जाने के लिये कहा। हरिभद्र ने धर्म का फल पूछा। आचार्य ने कहा कि सकामवृत्तिवालों के लिये स्वर्गप्राप्ति और निष्कामकर्मवालों के लिये भवविरह ( संसार का अन्त ) धर्म का फल है। हरिभद्र ने भवविरह की इच्छा प्रकट की और जिनदत्ताचार्य ने उन्हें जिनदीक्षा दे दी। हरिभद्र के जिनभद्र और वीरभद्र नामके दो शिष्य थे। उस समय चित्तौड़ में बौद्धमत का प्राबल्य था और बौद्ध हरिभद्रसे ईर्षी करते थे। एकदिन बौद्धों ने हरिभद्र के दोनों शिष्यों को एकान्त में मारडाला। यह सुनकर हरिभद्र को बहुत दुःख हुआ और उन्होंने अनशन करने का निश्चय किया। प्रभावक पुरुषों ने उन्हें ऐसा करने से रोका और हरिभद्र ने ग्रन्थराशि को ही अपना पुत्र मान उसकी रचना में चित्त लगाया। ग्रन्थनिर्माण और लेखनकार्य में जिनभद्र वीरभद्र के काका लल्लिक ने बहुत सहायता की। हरिभद्र जब भोजन करते थे लल्लिक शङ्ख बजाता था। उसे सुनकर बहुत से याचक एकत्र हो जाते थे। हरिभद्र उन्हें 'भवविरह करने में प्रयत्न करो' कहकर आशीर्वाद देते थे। इससे हरिभद्रसूरि भवविरहसूरि के नाम से प्रसिद्ध होगये थे"। प्रभावकचरित के वर्णन की अपेक्षा कथावली का लेख प्रामाणिक अँचता है और भवविरह शब्द की जो उपपत्ति कथावली में दी गई है वह हृदय को लगती है। हंस परमहंस नामकी अपेक्षा जिनभद्र वीरभद्र नाम भी वास्तविक जंचते हैं। प्रभावकचरित के गुजराती अनुवाद की प्रस्तावना में मुनि कल्याणविजयजी लिखते हैं-“अमारा विचार प्रमाणे कथावलीनुं प्राचीन लखाण जे प्रामाणिक लागे छे, कारण के हंस अने - परमहंस जेवां नामो जैन श्रमणोमां प्रचलित न होवा थी, ऐ नामो या तो कल्पित होवां जेइये अने नहि तो उपनाम होई शके, पण आवां मूल नामों होवां संभवतां नथी। ऐ सिवाय बीजु पण कथावलीमा लेखली हकीकत वास्तविक जणाय छे, प्रबन्धमा केटलाक बनावो अतिशयोक्तिपूर्ण अने कल्पित जेवा लागे छ / " जिन दिगम्बर कथाकोशों में अकलङ्क की कथा वर्णित है उनमें से नेमिदत्तका कथाकोश प्रभाचन्द्र के गद्यकथाकोश का ही पद्यों में रूपान्तर है। वि० सं० 1575 के लगभग नेमिदत्त के अस्तित्व का पता लगाया गया है। गद्यकथाकोश के बारे में प्रेमीजी का अनुमान है कि यह गद्यकथाकोश बहुत करके उन्हीं प्रभाचन्द्र का बनाया हुआ है जिनके पद पर पद्मनन्दि भट्टारक सं० 1385 में बैठे थे। अर्थात् वे उसे वि. को चौदहवीं शताब्दी की रचना मानते हैं। रत्नकरंडश्रावकाचार की प्रभाचन्द्रकृत संस्कृतटीका में, जो इसी प्रन्थमाला से प्रकाशित हुई है, कुछ कथाएँ मिलती हैं। हमने उक्त टीका में दत्त सम्यक्त्व के आठ अङ्गों को कथाओं का गद्यकथाकोश को कथाओं से मिलान किया तो उनमें अक्षरशः ऐक्य पाया। क्वचित् क्वचित् टीका में पाठ छूट गया है जो कथाकोश से पूर्ण हो जाता है। एक दो जगह साधारणसा शब्दभेद भी प्रतीत हुआ किन्तु वह प्रतिभेद का ही परिणाम जान पड़ा। पं० जुगुलकिशोर जी मुख्तार ने उक्त टीका का रचनाअल वि० सं० 1300 के लगभग अन्दाजा है। अतः यदि रत्नकरण्ड की टीका में दत्त उक्त कथाएँ गद्यकथाकोश से ली गई हों या दोनों का कर्ता एक हो तो कथाकोश वि. की 13 वीं शताब्दी के बाद की रचना नहीं हो सकता। हमारा अनुमान है कि अकलङ्क के भाई निकलङ्क और उसकी मृत्यु आदि की कल्पना श्वेताम्बरग्रन्थ कथावली वगैरह के प्रभाव का फल है और प्रभावकचरित में वर्णित हंस परमहंस की कथा पर गद्यकथाकोश में वर्णित अकलङ्क की कथा का प्रभाव है क्योंकि हंस परमहंस की कथा में शास्त्रार्थ तथा धोबी वगैरह की घटना कथाकार की जोड़ी हुई सी प्रतीत होती है।