________________ प्रस्तावना छिपकर अपने प्राण बचाओ। दूसरा उपाय न देखकर दुःखी अकलंक तालाब में छिप गये और निकलंक भाग दिये / एक धोबी कपड़े धो रहा था। उसने निकलंक को भागता देखा और पीछे की ओर उड़ती हुई धूल भी देखी। डरकर वह भी भाग खड़ा हुआ / सवारों ने उनके निकट पहुँच कर दोनों के सिर धड़ से जुदा कर दिये। सवारों के लौट जाने पर अकलंक तालाब से निकले और एक ओर को चल दिये। भगवहास के मठ में दोनों भाईयों के प्रविष्ट होने के बाद उक्त घटना के सम्बन्ध में राइस सा० लिखते हैं___ "एक कथाकार कहता है कि उन्होंने ऐसी असाधारण शीघ्रता के साथ उन्नति की कि गुरु को सन्देह हो गया और उसने यह जानने का निश्चय किया कि वे कौन हैं। अतः एक रात्रि को जब वे सोते थे उस बौद्धगुरु ने बुद्ध का दाँत उनकी छाती पर रख दिया। इससे वे बालक जिनसिद्ध कहते हुए एक दम उठ खड़े हुए और इससे गुरु को मालूम हो गया कि वे जैन हैं। दूसरी कथा के आधार पर, उन बालकों ने एक दिन-जब कि गुरु कुछ मिनिट के लिये उनसे अलग हुआ था-एक हस्तलिखित पुस्तक में 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' लिख दिया और इस बात की छानबीन करने पर गुरु को मालूम हो गया कि वे जैन हैं। दोनों कथाओं में चाहे जो सच्ची हो आखिर नतीजा यह निकला कि उनके मारने का निश्चय किया गया और वे दोनों भाग निकले। निकलंक ने अपना पकड़ा जाना और मारा जाना स्वीकार किया ताकि उसके भाई को पीछा करनेवालों से बचने का अवसर मिल जाये / अकलंक ने एक धोबी की सहायता से, जिसने उसको अपने कपड़ों की गठरी में छिपा लिया, अपने को बचा लिया और दोक्षा लेकर सुधापुर के देशीयगण का आचार्यपद शोभित किया / " ___ इस अंश से अकलंक की कथाओं में रोचकता अवश्य आजाती है और इसलिये कथासाहित्य में उन्हें अच्छा स्थान भी मिल सकता है, किन्तु उनका ऐतिहासिक महत्त्व नष्ट हो जाता है। जिस उद्देश्य से प्रेरित होकर अकलङ्क ने राजपाट छोड़ा और गृहस्थाश्रम से मुँह मोड़ा उसकी सिद्धि के लिये उनका बौद्धदर्शन का विद्वान् होना आवश्यक था और बौद्धदर्शन का विद्वान होने के लिये किसी बौद्धाचार्य को गुरु बनाना भी आवश्यक था, क्योंकि एक तो किसी धर्म का जो रहस्य उसके अनुयायी विद्वान के द्वारा प्राप्त हो सकता है वह दूसरे के द्वारा मिलना अशक्य है। दूसरे, इतिहास से पता चलता है कि उस समय जैनों में कोई अच्छे विद्वान आचार्य भी नहीं थे। अतः बौद्धदर्शन का अध्ययन करने के लिये अकलङ्क का बौद्धमठ में प्रविष्ट होना बहुत अंशों में संभव है और इसके लिये उन्हें अपना असली रूप छिपाना भी पड़ा होगा। क्योंकि जब बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक उत्तरभारत की काशीपुरी में जैन विद्यार्थियों को अपना रूप छिपाकर विद्याभ्यास करना पड़ा है, तब सातवीं शताब्दी में दक्षिण भारत की काशी काञ्चीपुरी में, बौद्धधर्म के पालक पल्लवराज्य की छत्रछाया में, यदि अकलङ्क को बौद्ध बनकर विद्याभ्यास करना पड़ा हो तो अचरज ही क्या है ? और ऐसी दशा में रहस्य खुल जाने पर संकट भी आसकता है। किन्तु रहस्य खुल जाने के जो कारण दिये गये हैं वे कुछ अँचते नहीं। छिपकर विद्याभ्यास करनेवाला व्यक्ति इस तरह बैठे बिठाये संकट मोल नहीं ले सकता। तथा रहस्य का उद्घाटन और छद्मवेषियों की गिरफ्तारी हो जाने के बाद उनके साथ बौद्धधर्म के उपासकों का जो कर व्यवहार बतलाया गया है. वह