Book Title: Nidi Sangaho Author(s): Sunilsagar Publisher: Jain Sahitya Vikray Kendra Udaipur View full book textPage 5
________________ इस युग में निर्बाध चली आ रही है । वात्सल्य से धर्मप्रभावना करें । इस सूत्र से श्रुत परम्परा को वृद्धिगत करने में अपना योगदान दिया है। अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी मुनिसुनीलसागरजी के ज्ञान का क्षयोपशम अच्छा है, अनेक भाषाओं पर आधिपत्य प्राप्त किया है । उदयपुर की उपलब्धि प्राकृत भाषा है । यह भाषा प्राय: सरल और सुगम है । प्रस्तुत ग्रन्थ'णीदी संगहो' नाम का है तथा प्राकृत भाषा में है, अद्वितीय है । प्रत्येक मनुष्य की जो प्रवृत्ति होती है वह तीर्थ, व्यवहार, नीति, शासन इत्यादि के नाम से जानी जाता है । आचार्य अमृतचन्द्रसूरि ने पुरुषार्थ-सिध्दयुपाय में लिखा है कि जो जैनी नीति पूर्वक प्रवर्तन करता है वह गंतव्य स्थान को प्राप्त होता है । यथा एकेनाकर्षन्तिश्लथयन्ति वस्तुतत्त्वमितरेण । अंतेन जयति जैनी नीर्तिमंथान ने मवगोपी॥२२४॥ वस्तु तत्त्व के एक पक्ष को आकर्षित करने पर दूसरा शिथिल हो जाता है । ऐसी यह जैनी नीति है । उसजैनी नीति के नाम को उद्घोष करते हुए पूज्यपाद आचार्य ने लिखा है । यथा श्रीमत्परमगंभीर, स्याद्वादमोघलांच्छनं । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य,शासनं जिनशासनं ।। स्याद्वाद नामक नीति सर्वोत्कृष्ट है और गंभीर है उसी त्रिलोकीनाथ की नीति-शासन ही जिनशासन है, वह जयवन्त हो। अन्य जितनी भी प्रकार की नीतियाँ हैं वे सब इसी का विस्तार है । दुर्नीति से दुर्गति और सुनीति से सुगति की प्राप्ति होती है। इससे प्राय: सर्वलोक सुपरिचित है। प्रस्तुत ग्रन्थ 'णीदी संगहो' नाम का ग्रन्थ भी उसी का कुछ अंश है। परन्तु इसकी विशेषता यह है कि इसकी नीतियाँ जीवों के लिए कल्याणकारक, हितकारक और अधिक तो क्या सर्वार्थसाधक है । संसारका हर एक प्राणी इसके स्वाध्याय करने से अपने जीवन को सुखमय अवश्य बना सकता है । अत: यह सर्वोपयोगी होने के कारण इसका प्रकाशन आवश्यक और उत्तम कार्य है । इसके लिए इस ग्रन्थ के सहयोगी सभी कार्यकर्ताओं को मेरा शुभ आशीर्वाद है । My आचार्य सन्मतिसागर मगशिर शुक्ला १२ सं. २०६० IV Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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