Book Title: Navsuttani
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 1178
________________ १८४ पडीणाभिमुह-पणिहिय पडोणाभिमुह (प्रतीचीनाभिमुख) दसा० ७।२० दसा० २।३. प० २६२,२६४,२७६. पडु (पटु) दसा० १०.१८,२४. प०६,२६,३१ क० ४।३१ से ३४; ६८. नि० ७७५; पडुच्च (प्रतीत्य) उ०३६।१२. नं०६६. जोनं० ३. १३८।१४।२७; १६१४८१८१५६ ___ अ० ३. दसा० ७।१६. नि० ८।१४ पणगायतण (पनकायतन) नि० ३।७५ पडच्चमक्खिय (प्रतीत्य म्रक्षित) आ० ६।१० पणट्ठ (प्रणष्ट) उ० ४।५ पडुप्पण्ण (प्रत्युत्पन्न) नं०६५,१२५. अनं० २४. पणपन्न (पञ्चपञ्चाशत्) प० १०६ अ० ५०,४६३,४६०,५०३,५३०,५३२,५३४, पणपन्नइम (पञ्चपञ्चाश) प० १३० ५३६,५४६. नि० १०१७ पिणम (प्र-- णम)-----पणमामि नं० गा०४१ पडुपवा इथ (ठाण) (पटुप्रवादितस्थान) पणमिऊण (प्रणम्य) नं० गा० ४३ नि० १२।२७ पणमिय (प्रणत) अ० ३१६।२ पडुप्पवाइयट्ठाण (पटुप्रवादितस्थान) नि० १७।१४६ पणय (प्रणत) नं० गा० १७ पड़प्पन्न (प्रत्युत्पन्न) उ० २६।१३ पणयाल (पञ्चचत्वारिंशत् ) उ० ३६१५८ पडोल (पटोल) नि० ५।१४ पणयालीस (पञ्चचत्वारिंशत) न०६० पढग (पाठक) ५० ६२ पणव (पणव) दसा० १०॥१७. प० ६४,७५. नि० १७।१३७ पढम (प्रथम) द०४ सू० ११ गा० १०६.८. पणवीस (पञ्चविंशति) उ० ३१११७. नं. ८१ उ० ५१४; २०१६; २४११२; २६।२,१२,१८, पणवीसतिविह (पञ्चविंशतिविध) अ० ५५७ २८; २८।३२; २६।७२,३४१५८ ; ३६।१६०, पिणस्स ( प्रणश्)—पणस्संति दसा० ५७।१२. २३४,२५२. नं० गा० २० सू० २८,२६,८१, –पणस्सती दसा० ५।७।१२ १२७१५. अ० ७५,३०८,४६३,४६७,४८७, कृपणाम (अर्पय)-पणामए उ० १९७६ ४६०,५८६. ५० ५६,६६,७४,८३,१०६,११५, पणाम (प्रणाम) प० १५ १२४,१२८,१६२,१६३,१६५,१६७ से १९६, पणास (प्र+नाशय)-पणासेइ द० ८।३७ २०१,२०२,२२१. क० ४।१२. नि० १२।३१ पणासिय (प्रणाशित) प० २० पढमजिण (प्रथमजिन) प० १६४ पणिय (पण्य) द० ७.४५,४६. नं० ३८१३ पढमतित्थक र (प्रथमतीर्थकर) प० १६४ पणिय (पणित, पण्य) द०७।३७ पढमपाउस (प्रथमप्रावृष) नि० १०॥३४ पणियगिह (पण्यगृह) नि० ८।८; १५२७४ पढमभिक्खायर (प्रथमभिक्षाचर) प० १६४ पणियगेह (पण्यगृह) दसा० १०।३ पढमया (प्रथमता) दसा० १०.१४. प० २१ पणियभूमि (पणितभूमि, पण्यभूमि) प० ८३ पढमराय (प्रथमराजन्) ५० १६४ पणियशाला (पण्यशाला) दसा० १०।३. पढमसमोसरण (प्रथमसमवसरण) क० ३।१६. नि० ८1८; १५७४ नि० १०१४१ पणिवइय (प्रणिपतित) नं० गा० ४२ पढमसरदकाल (प्रथमशरत्काल) व० ६।४०,४१ पणिवय (प्रणि+पत)-पणिवयामि प० २२२ पढमा (प्रथमा) दसा०६।८।७।३,२७,२८ पणिहाणव (प्रणिधानवत्) उ० १६१८,१४ पणग (दे० पनक) आ० ४१४. द० ५१५६८।११, पणिहाय (प्रणिधाय) द० ८।४४ १५. उ० ३६७२,१०३,१०४. नं० १८.. पणिहि (प्रणिधि) उ०२३।११ अ० ७५,३०८,४६३,४६७,४८७,४६०,५८६. पणिहिय (प्रणिहित) दसा० ६२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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