Book Title: Navsuttani
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
सुत्तय-सुप्पसारय
अ० ७११,७१४ सुत्तय (सूत्रक) नि० ३१७० सुत्तरुइ (सूत्ररुचि) उ० २८.२१ सुत्तत्थ (सूत्रार्थ) नं० गा० ४० सू० ३८।५;
१२७।५ सुत्तपरिवाडी (सूत्रपरिपाटी) नं० १०३ सुत्तागम (सूत्रागम) अ० ५५० सुत्ताणुगम (सूत्रानुगम) अ० ७१० सुत्तालावगनिप्फण्ण (सूत्रालापकनिष्पन्न)
अ० ६१८,७०६ · सुत्तिमत्तिया (सूक्तिमतिका) प० १६५
सुदंसण (सुदर्शन) दचू० १११७. ५० ३८,१६५ सुदंसणा (सुदर्शना) उ० ११११२७. प० ७० सुदिट्ट (सुदृष्ट) उ० १२॥३८; २८।२८ सुदुक्कर (सुदुष्कर) उ०१६।२८ से ३०,३८,३६ सुदुक्खिअ (सुतुःखित) उ० २२।१४ सुदुच्चर (सुदुश्चर) उ० १८।३३ सुदुल्लह (सुदुर्लम) द० ५।१४८. उ० ८।१५;
१७१; २०१११, २२॥३८ सुद्द (शूद्र) उ० २५१३१ सुद्ध (शुद्ध) द० ५।५६. उ० ३।१२; ८।११;
१८१३२; १९६४; ३२।१०६. प० २२,५६,
८१,८४ सुद्धगंधारा (शुद्धगान्धारा) अ० ३०६।१ सुद्धसज्जा (शुद्धषड्जा) अ० ३०४।१ सुदपुढवी (शुद्धपृथिवी) द० ८।५। सूद्धप्पा (शवात्मन) दसा० ६।२।३७ सुद्धप्पावेस (शुद्धप्रावेश',शुद्धात्मवेश) प० ४४,
६६,७८,८१,१२४,१२८,१२६,१३८,२२२ सुद्धवाय (शुद्धवात) उ० ३६।११८ सुद्धवियड (शुद्धविकट) प० २४७. नि० १७।१३३ सुद्धहियय (शुद्धहृदय) प० ७८ सुद्धागणि (शुद्धाग्नि) द०४ सू० २० सुद्धोदग (शुद्धोदक) द० ४ सू १६
सुद्धोदय (शुद्धोदक) उ० ३६।८५. दसा० १०।११.
प०४२ सुद्धोवहड (शुद्धोपहत) दसा० ७१५. व० ६।४४;
१०॥३. सुनंद (सुनन्द) ५० ११६ सुनंदा (सुनन्दा) प० १२० सुनंदि (सुनन्दि) नं० गा०६ सुनिट्ठिय (सुनिष्ठित) द० ७।४१ सुनिम्मिय (सुनिमित) प० २३ सुनिसिय (सुनिशित) द० १०।२ सुन्नागार (शून्यागार) उ० २।२०; ३५॥६.
प० ५१ सुपइट्ठिय (सुप्रतिष्ठित) ५० २४ सुपक्क (मुपक्व) द० ७।४१. उ० ११३६ सुपट्ठिय (सुप्रस्थित) उ० २०।३७ सुपण्णत्त (सुप्रज्ञप्त) द० ४ सू० १ से ३ सुपरिनिट्ठिय (सुपरिनिष्ठित) प०६ सुपरिमट्ठ (सुपरिमृष्ट) प० २६ सुपरिच्चाइ (सुपरित्यागिन्) उ० १८।४३ सुपालय (सुपालक) उ० २३।२७ सुपावय (सुपापक) उ० १२११४ सुपास (सुपाव) आ० २।२५४।२.
नं० गा० १८. अ० २२७. प०७०,१५४ सुपिवासिय (सुपिपासित) उ०२।५ सुपुण्ण (सुपुण्य) उ० ५।१८ सुपेसल (सुपेशल) उ० १२।१३,१५ सुम्प (सूर्प) नि० १७।१३२ सुप्पडिबुद्ध (सुप्रतिबुद्ध) प० १८७,१६६,२०२,
२०३ सुप्पणिहिदिय (सुप्रणिहितेन्द्रिय) ६० ५।१५० सुप्पणिहित (सुप्रणिहित) दसा० ४।१८ सुप्पणिहिय (सुप्रणिहित) उ० २६।१२ सुप्पभ (सुप्रभ) नं० गा० १८ सुप्पय (सूर्पक) अ० ३४६ सुप्पसारय (सुप्रसारक) उ० २।२६
१. शुद्धप्रावेश्य
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 1299 1300 1301 1302 1303 1304 1305 1306 1307 1308 1309 1310 1311 1312 1313 1314 1315 1316