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सकता है कि पूर्वो का ज्ञान तीन प्रकार से होता है-1. जब किसी विशिष्ट जीव के तीर्थंकर नाम-गोत्र का उदय होता है। (वह केवल ज्ञान होने पर ही उदय होता है छद्मस्थकाल में नहीं, यह कथन निश्चय दृष्टि से समझना चाहिए न कि व्यवहार दृष्टि से) तब तीर्थ की स्थापना होती है, "तीर्थ' प्रवचन, गणधर और चतुर्विध श्रीसंघ को कहते हैं। केवलज्ञान उत्पन्न होने पर अरिहंत भगवान प्रवचन करते हैं। उस प्रवचन से प्रभावित होकर जो विशिष्ट वेत्ता, कर्मठयोगी दीक्षित होते हैं, वे गणधर पद प्राप्त करते हैं। वे ही चतुर्विध श्रीसंघ की व्यवस्था करते हैं, तीर्थंकर नहीं। जिस कार्य को गणधर नहीं कर सकते, उसे तीर्थंकर करते हैं। .. अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या गणधरों का निर्वाचन तीर्थंकर करते हैं, या श्रमणसंघ के द्वारा निर्वाचित किए जाते हैं या स्वतः ही बनते हैं ? इन प्रश्नों के उत्तर में यही कहा जा सकता है कि तीर्थंकर भगवान द्वारा उच्चारित "उप्पन्ने इ वा, विगमे इ वा, धुवेइ वा" इस त्रिपदी को सुनकर जिस-जिस मुनिवर को चौदह पूर्वो का या सम्पूर्ण दृष्टिवाद का ज्ञान हो जाता है, उस-उस मुनिवर को गणधरपद प्राप्त होता है। त्रिपदी सुनते ही चौदह पूर्वो का ज्ञान हो जाता है, ऐसी बात नहीं है। जिसे त्रिपदी के चिन्तन-मनन और अनुप्रेक्षा (निदिध्यासन) करते-करते श्रुतज्ञान की महाज्योति प्रस्फुटित हो जाए अर्थात् चौदह पूर्वो का ज्ञान उत्पन्न हो जाए, वह गणधर पद को प्राप्त करता है, जिन को सविशेष चिन्तन करने पर भी दृष्टिवाद का ज्ञान नहीं हुआ, एक परिकर्म का या एक पूर्व का ज्ञान भी नहीं हुआ, वे गणधर पद के अयोग्य होते हैं। गणधर बनने के बाद ही गणव्यवस्था चालू होती है। वे सब से पहले आचारः प्रथमो धर्मः की उक्ति को लक्ष्य में रखकर आचारांग तत्पश्चात् सूत्रकृतांग इस क्रम से ग्यारह अंग पढ़ाते हैं। श्रमण या श्रमणी वर्ग का उद्देश्य न केवल पढ़ने का ही होता है, साथ-साथ संयम और तप की आराधना-साधना का भी होता है। कुछ एक साधक तो अधिक से अधिक 11 अंग सूत्रों का अध्ययन करके ही आत्म-विजय प्राप्त कर लेते हैं। उस संयम-तप पूर्वक अध्ययन का अन्तिम परिणाम केवलज्ञान होने का या देवलोक में देवत्वपद प्राप्त करने का ही होता है। - कुछ विशिष्ट प्रतिभाशाली साधक गणधरों से 11 अंग सूत्रों का अध्ययन करने के बाद दृष्टिवाद का अध्ययन प्रारम्भ करते हैं। वे पहले परिकर्म का अध्ययन करते हैं, फिर सूत्रगत का, तत्पश्चात् पूर्वो का अध्ययन प्रारम्भ करते हैं। कोई एक पूर्व का, कोई दो पूर्वो का ज्ञाता होता है। इस प्रकार कोई प्रतिपूर्ण दशपूर्व से लेकर 14 पूर्वो का ज्ञाता होता है। तत्पश्चात्
चूलिका का अध्ययन करता है। जब प्रतिपूर्ण द्वादशांग गणिपिटक का वेत्ता हो जाता है, तब निश्चय ही वह उसी भव में केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है। यह एक निश्चित सिद्धांत है। श्रुतज्ञान की प्रतिपूर्णता हुई और अप्रतिपाति बना। प्रतिपूर्ण द्वादशांग गणिपिटक का अध्ययन चरमशरीरी ही कर सकता है, अपूर्णता में अप्रतिपाति होने की भजना है। कतिपय उसी भव में मिथ्यात्व के उदय होने पर प्रतिपाति हो जाते हैं।