Book Title: Nandi Sutram
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Bhagwan Mahavir Meditation and Research Center

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Page 430
________________ वृत्तिकार इस विषय को निम्न शब्दों में लिखते हैं " सव्वागासेत्यादि सर्वं च तदाकाशञ्च सर्वाकाशं, लोकाकाशमित्यर्थः, तस्य प्रदेशाः - निर्विभागा-भागाः सर्वाऽऽकाशप्रदेशास्तेषामग्रं-प्रमाणं संर्वाकाशप्रदेशाग्रं, तत्सर्वाकाशप्रदेशैरनन्तगुणितम् - अनन्तशो गुणितमेकैकस्मिन्नाकाशप्रदेशेऽनन्तागुरुलघुपर्यायभावात् पर्यायाग्राक्षरं निष्पद्यते-पर्यायपरिमाणाक्षरं निष्पद्यते । इयमत्रभावना-सर्वाकाशप्रदेशपरिमाणं- सर्वाकाशप्रदेशैरनन्तशो गुणितं यावत्परिमाणं भवति, तावत् परिमाणं सर्वाकाशपर्यायाणामग्रं भवति, एकैकस्मिन्नाकाशप्रदेशे यावन्तोऽगुरुलघुपर्यायास्ते सर्वेऽपि एकत्र पिण्डिता एतावन्तो भवन्तीत्यर्थः, एतावत् प्रमाणं चाक्षरं भवति । इह स्तोकत्वाद्धर्मास्तिकायादयः साक्षात्सूत्रे नोक्ताः, परमार्थतस्तु तेऽपि गृहीत्वा द्रष्टव्याः, ततोऽयमर्थः सर्वद्रव्यप्रदेशाग्रं सर्वद्रव्यप्रदेशैरनन्तशो गुणितं यावत्परिमाणं भवति, तावत्प्रमाणं सर्वद्रव्यपर्यायपरिमाणं, एतावत्परिमाणं चाक्षरं भवति, तदपि चाक्षरं द्विधाज्ञानम-कारादिवर्णजातं च, उभयत्रापि अक्षर, शब्दप्रवृत्ते रूढत्वाद्, द्विविधमपि चेहगृह्यते विरोधाभावात्।'' ननु ज्ञानं सर्वद्रव्यपर्यायपरिमाणं सम्भवतु, यतो ज्ञानमिहाविशेषोक्तौ सर्वद्रव्यपर्यायपरिमाणतुल्यताऽभिधानात्, प्रक्रमाद्वा केवलज्ञानं ग्रहीष्यते, तच्च सर्वद्रव्यपर्यायपरिमाणं घटत एवेत्यादि । .: केवलज्ञान स्वपर्यायों से ही द्रव्यपर्याय परिमाण कथन किया गया है, किन्तु 'अ' कार आदि वर्ण स्व-पर पर्यायों से ही सर्व द्रव्यपर्याओं के परिमाण तुल्य कथन किये गए हैं, जैसे कि भाष्यकार लिखते हैं। सय पज्जाएहिं उ केवलेण, तुल्लं न होइ न परेहिं । सय पर पज्जाएहिं तु तं तुल्लं केवलेणेव ॥ 2 स्वपर्यायैस्तु केवलेन, तुल्यं न भवति न परैः । स्वपरपर्यायैस्तु तत्तुल्यं केवलेनैव ॥ सजीवाणं पिणं अक्खरस्स अनंतभागो निच्चुग्घाडिओ । इस सूत्र में आए हुए इस पाठ की व्याख्या यद्यपि हम पहले कर चुके हैं, तदपि इस पाठ से सम्बन्धित सभाष्य तत्त्वार्थाधिगम में दी गई एक टिप्पणी इस पाठ को बिल्कुल स्पष्ट करती है। पाठकों की जानकारी के लिए अक्षरश: यहां उसका उद्धरण दिया जा रहा है-" जैसे कि सभी जीवों के अक्षर के अनन्तवें भाग प्रमाण ज्ञान कम से कम नित्य उद्घाटित रहता ही है, यह ज्ञान निगोदिया के जीवों में ही पाया जाता है। इसको पर्यायज्ञान तथा लब्धि-अक्षर भी कहते हैं। क्योंकि लब्धि नाम ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम प्राप्त विशुद्धि का है और अक्षर नाम अविनश्वर का है, ज्ञानावरणकर्म का इतना क्षयोपशम तो रहता ही है, अतएव इसको लब्ध्यक्षर भी कहते हैं। इसे स्पष्ट करने के लिए उदाहरण है - 65536 को पण्णट्ठी कहते हैं। ❖ 421 ❖

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