Book Title: Nandi Sutram
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Bhagwan Mahavir Meditation and Research Center

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Page 485
________________ पद उपलब्ध होता है। इनमें कौन-सा पद ठीक है, इसके विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता, जब तक कि मूल आगम न हो। परिकर्म के सात मूल भेदों में आदि के छ: पद स्व-सिद्धान्त के प्रकाशक हैं और अन्तिम पद सहित सातों ही परिकर्म गोशालक प्रवर्तित आजीविक मत के प्रकाशक हैं। अथवा आदि के छ: पद चतुर्नयिक हैं, जो कि स्व-सिद्धान्त के द्योतक हैं। वास्तव में नय सात हैं, उनमें नैगमनय दो प्रकार से वर्णित है-सामान्यग्राही और विशेषग्राही। इनमें पहला संग्रह में और दूसरा व्यवहार में अन्तर्भूत हो जाता है। भाष्यकार भी इसी प्रकार लिखते हैं जो सामन्नग्गाही य, स नेगमो संगह गओ अहवा। इयरो ववहार मिओ, जो तेण समाण निद्दिसो॥ अन्तिम तीन नय शब्दनय से कहे जाते हैं। इस प्रकार संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द सात नयों के चार रूप कथन किए गए हैं। इसी प्रकार चूर्णिकार भी लिखते हैं। "इयाणि परिकम्मे नयचिन्ता-नेगमो दुविहो संगहिओ असंगहिओ य, तत्थ संगहिओ संगहं पविट्ठो असंगहिओ ववहारं, तम्हा संगहो, ववहारो, उज्जसुओ, सद्दाइया य एक्को एवं चउरो नया एएहिं चउहिँ नएहिं ससमइगा परिकम्मा चिन्तिन्जन्ति।" आजीविक मत को दूसरे शब्दों में त्रैराशिक भी कहते हैं, इसका अर्थ है-विश्व में यावन्मात्र पदार्थ हैं, वे सब त्रयात्मक हैं, जैसे जीव, अजीव और जीवाजींवा लोक, अलोक और लोकालोका सद, असद् और सदसद। वे नय भी तीन ही प्रकार से मानते हैं जैसे कि द्रव्यास्तिक, पर्यायास्तिक और उभयास्तिक। परिकर्म के उक्त सात भेद त्रैराशिकं के मतानुसार हैं, किन्तु उसका सातवां भेद परसिद्धान्त है। अत: वह और उसके भेद जैन सिद्धान्त को मान्य नहीं हैं। १. सिद्धश्रेणिका परिकर्म मूलम्-से किं तं सिद्धसेणिआ-परिकम्मे ? सिद्धसेणिआ-परिकम्मे चउदसविहे पन्नत्ते, तं जहा-१. माउगापयाई, २. एगट्ठिअपयाई, ३. अट्ठपयाई, ४. पाढोआगासपयाई, (पाढोआमास) पयाई ५. केउभूअं, ६. रासिबद्धं, ७. एगगुणं, ८. दुगुणं, ९. तिगुणं, १०. केउभूअं, ११. पडिग्गहो, १२. संसारपडिग्गहो, १३. नंदावत्तं, १४. सिद्धावत्तं, से त्तं सिद्धसेणिआपरिकम्मे। छाया-अथ किं तत् सिद्धश्रेणिका-परिकर्म ? सिद्धश्रेणिका-परिकर्म चतुर्दशविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा१. मातृकापदानि, २. एकार्थपदानि, ३. अर्थपदानि, ४. पृथगाकाशपदानि, ५. *476*

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