Book Title: Nandi Sutram
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Bhagwan Mahavir Meditation and Research Center

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Page 508
________________ काले-अनागत काल में, अनंता जीवा - अनन्त जीव, आणाए - आज्ञा से, विराहित्ता -विराधना करं, चाउरंतं-चतुर्गति रूप, संसारकंतारं संसार कान्तार में, अणुपरिअट्टिस्संति-भ्रमण करेंगे। भावार्थ - इस प्रकार इस द्वादशांग गणिपिटक की भूतकाल में अनन्त जीवों ने विराधना करके चार गतिरूप संसार कान्तार में भ्रमण किया। इसी प्रकार इस द्वादशांगगणिपिटक की वर्तमान काल में परिमित जीव आज्ञा से विराधना करके चार गतिरूप संसार में भ्रमण करते हैं। इसी प्रकार इस द्वादशांगरूप गणिपिटक की आगामी काल में अनन्त जीव आज्ञा से विराधना कर चतुर्गतिरूप संसार कान्तार में परिभ्रमण करेंगे। टीका - इस सूत्र में वीतराग उपदिष्ट शास्त्र आज्ञा का उल्लंघन करने का फल बतलाया है। जिन जीवों ने या मनुष्यों ने द्वादशांग गणिपिटक की विराधना की, और कर रहे हैं तथा अनागत काल में करेंगे, वे चतुर्गतिरूप संसार कानन में अतीत काल में भटके, वर्तमान में नानाविध संकटों से ग्रस्त हैं, और अनागत काल में भव- भ्रमण करेंगे, इसलिए सूत्रकर्ता ने यह पाठ दिया है “इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं तीए काले अणंता जीवा आणाए विराहित्ता चाउरंतसंसारकन्तारं अणुपरिअिंट्सु इत्यादि । " इस पाठ में, आणाए विराहित्ता - आज्ञया विराध्य, पद दिया है। इसका आशय यह है कि द्वादशांग गणिपिटक ही आज्ञा है, क्योंकि जिस शास्त्र में संसारी जीवों के हित के लिए . जो कुछ कथन किया गया है उसी को आज्ञा कहते हैं। वह आज्ञा तीन प्रकार से प्रतिपादित की गई है, जैसे कि सूत्राज्ञा, अर्थाज्ञा और उभयाज्ञा। - 'जो अज्ञान एवं असत्यहठवश अन्यथा सूत्र पढ़ता है, जमालिकुमार आदिवत्, उसका नाम सूत्राज्ञा विराधना है। जो अभिनिवेश के वश होकर अन्यथा द्वादशांग की प्ररूपणा करता है, वह अर्थ आज्ञा विराधना है, गोष्ठामाहिलवत् । जो श्रद्धाहीन होकर द्वादशांग के उभयागम का उपहास करता है, उसे उभयाज्ञा विराधना कहते हैं। इस प्रकार की उत्सूत्र प्ररूपणा अनन्तसंसारी या अभव्यजीव ही कर सकते हैं। अथवा जो पंचाचार पालन करने वाले हैं, ऐसे धर्माचार्य के हितोपदेश रूप वचन को आज्ञा कहते हैं। जो उस आज्ञा का पालन नहीं करता, वह परमार्थ से द्वादशांग वाणी की विराधना करता है । इसी प्रकार चूर्णिकार भी लिखते हैं“अहवा-आणत्ति पंच विहायारणसीलस्स गुरुणो हियोवएस वयणं आणा, तमन्नहा आयरंतेण गणिपिडगं विराहियं भवइ त्ति ।" इस कथन से यह सिद्ध हुआ कि आज्ञा- विराध न करने का फल निश्चय ही भव भ्रमण है। ❖ 499❖

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