Book Title: Nandi Sutram
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Bhagwan Mahavir Meditation and Research Center

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Page 515
________________ परोक्ख नाणं-यह परोक्षज्ञान है, से त्तं नंदी-इस प्रकार यह नन्दीसूत्र सम्पूर्ण हुआ। .. भावार्थ-अक्षर १, संज्ञी २, सम्यक् ३, सादि ४, सपर्यवसित ५, गमिक ६, और अंगप्रविष्ट ७, ये सात सप्रतिपक्ष करने से श्रुतज्ञान के १४ भेद हो जाते हैं। ___आगम-शास्त्रों का अध्ययन जो बुद्धि के आठ गुणों से देखा गया है, उसे शास्त्र विशारद-जो व्रतपालन में धीर हैं, ऐसे आचार्य श्रुतज्ञान का लाभ कहते हैं वे आठ गुण इस प्रकार हैं-शिष्य विनययुक्त गुरु के मुखारविन्द से निकले हुए वचनों को सुनना चाहता है। जब शंका होती है तब पुनः विनम्र होकर गुरु को प्रसन्न करता हआ पूछता है। गरु के द्वारा कहे जाने पर सम्यक प्रकार से श्रवण करता है.सनकर अर्थ रूप से ग्रहण करता है। ग्रहण करने के अनन्तर पूर्वापर अविरोध से पर्यालोचन करता है। तत्पश्चात् 'यह ऐसे ही है' जैसा आचार्यश्री जी महाराज फरमाते हैं। उसके पश्चात् निश्चित अर्थ को हृदय में सम्यक् प्रकार से धारण करता है। फिर जैसा गुरु जी ने प्रतिपादन किया था, उसके अनुसार आचरण करता है। इसके पश्चात् शास्त्रकार सुनने की विधि कहते हैं शिष्य मूक होकर अर्थात् मौन रहकर सुने, फिर हुंकार अथवा 'तहत्ति' ऐसा कहे। फिर बाढकार अर्थात् 'यह ऐसे ही है जैसा गुरुदेव फरमाते हैं।' पुनः शंका को पूछे कि 'यह किस प्रकार है, फिर प्रमाण, जिज्ञासा करे अर्थात् विचार-विमर्श करे। तत्पश्चात् उत्तर-उत्तर गुण प्रसंग में शिष्य पारगामी हो जाता है। ततः श्रवण-मनन आदि के पश्चात् गुरुवत् भाषण और शास्त्र की प्ररूपणा करे। ये गुण शास्त्र सुनने के कथन किए गए हैं। व्याख्या करने की विधि-प्रथम अनुयोग सूत्र और अर्थ रूप में कहे। दूसरा अनुयोग सूत्र स्पर्शिक नियुक्ति कहा गया है। तीसरे अनुयोग में सर्वप्रकार नय-निक्षेप आदि से पूर्ण व्याख्या करे। इस तरह अनुयोग की विधि शास्त्रकारों ने प्रतिपादन की है। यह श्रुतज्ञान का विषय समाप्त हुआ। इस प्रकार यह अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य श्रुत का वर्णन सम्पूर्ण हुआ। यह परोक्षज्ञान का वर्णन हुआ। इस प्रकार श्री नन्दीसूत्र भी परिसमाप्त हुआ। टीका-आगमकारों की यह शैली सदा काल से अविच्छिन्न रही है कि जिस विषय को उन्होंने भेद-प्रभेदों सहित निरूपण किया, अन्त में वे उसका उपसंहार करना नहीं भूले। इसी प्रकार इस सूत्र का उपसंहरण करते हुए श्रुत के 14 भेदों का स्वरूप बतलाने के पश्चात् अन्त में एक ही गाथा में सात पक्ष और सात प्रतिपक्ष इस प्रकार चौदह भेद कथन किए हैं, जैसे कि 1. अक्षर, 2. संज्ञी, 3. सम्यक्, 4. सादि, 5. सपर्यवसित, 6. गमिक, 7. अंगप्रविष्ट। 8. अनक्षर, 9. असंज्ञी, 10. मिथ्या, 11. अनादि, 12. अपर्यवसित, 13. अगमिक, और 14 अनंगप्रविष्ट इस प्रकार श्रुत के मूल भेद 14 हैं, फिर भी भले ही वह श्रुत, ज्ञानरूप हो या अज्ञानरूप। श्रुत एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय छद्मस्थ जीवों तक सभी में पाया जाता है। *5064

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