Book Title: Nandi Sutram
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Bhagwan Mahavir Meditation and Research Center

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Page 518
________________ - ४. पडिपुच्छइ-जहां कहीं सूत्र या अर्थ, ठीक-ठीक समझ में नहीं आया या सुनने से रह गया, वहां थोड़ा-थोड़ा बीच में पूछ लेना चाहिए, किन्तु उस समय उनसे शास्त्रार्थ करने न लग जाए, इस बात का ध्यान रखना चाहिए। । ५. वीमंसा-गुरुदेव से वाचना लेते हुए शिष्य को चाहिए कि गुरु जिस शैली से या जिस आशय से समझाते हैं, साथ-साथ ही उस पर विचार भी करता रहे। ६. पसंगपारायणं-इस प्रकार उत्तरोत्तर गुणों की वृद्धि करता हुआ शिष्य सीखे हुए श्रुत का पारगामी बनने का प्रयास करे। ७. परिणिट्ठा-इस क्रम से वह श्रुतपरायण होकर आचार्य के तुल्य सैद्धान्तिक विषय का प्रतिपादन करने वाला बन जाता है। उक्त विधि से शिष्य यदि आगमों का अध्ययन करे तो निश्चय ही वह श्रुत का पारगामी हो जाता है। अतः अध्ययन विधिपूर्वक ही करना चाहिए। - अध्यापन का कार्यक्रम आचार्य, उपाध्याय या बहुश्रुत सर्वप्रथम शिष्य को सूत्र का शुद्ध उच्चारण और अर्थ सिखाए। तत्पश्चात् उसी आगम को सूत्र स्पर्शी नियुक्ति सहित पढ़ाए। तीसरी बार उसी सूत्र को वृत्ति-भाष्य, उत्सर्ग-अपवाद और निश्चय-व्यवहार, इन सब का आशय नय, निक्षेप, प्रमाण और अनुयोग आदि विधि से सूत्र और अर्थ को व्याख्या सहित पढ़ाए। यदि गुरु शिष्य को इस क्रम से पढ़ाए तो वह गुरु निश्चय ही सिद्धसाध्य हो सकता है। अनुयोग के विषय में वृत्तिकार के शब्द निम्न प्रकार हैं 'सम्प्रति व्याख्यानविधिमभिधित्सुराह-सुत्तत्थो इत्यादि १. प्रथमानुयोगः-सूत्रार्थः सूत्रार्थप्रतिपादनपरः, 'खलु' शब्द एवकारार्थः स चावधारणे, ततोऽयमर्थ-गुरुणा प्रथमोऽनुयोगः सूत्रार्थाभिधानलक्षण एवं कर्त्तव्य, मा भूत् प्राथमिकविनेयानां मतिमोहः। . २. द्वितीयोऽनुयोगः-सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिमिश्रितो भणितस्तीर्थकरगणधरैः सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिमिश्रितं द्वितीयमनुयोगं गुरुविदध्यादित्याख्यातं तीर्थकरगणधरैरिति भावः। ' ३. तृतीयश्चानुयोगो निर्विशेषः प्रसक्तानुप्रसक्त प्रतिपादनलक्षण इत्येषः-उक्तलक्षणो विधिर्भवत्यनुयोगे व्याख्यायाम्, आह परिनिष्ठा सप्तमे इत्युक्तं, जयश्चानुयोगप्रकारास्तदेतत्कथम् ? उच्यते, त्रयाणामनुयोगानामन्यतमेन केनचित्प्रकारेण भूयो २ भव्यमानेन सप्तवाराः श्रवणं कार्यते ततो न कश्चिद्दोष, अथवा कश्चिन्मन्दमतिविनेयमधिकृत्यैतदुक्तं द्रष्टव्यम्, न पुनरेष एव सर्वत्र श्रवणविधिनियमः, उद्घटितज्ञविनेयानां सकृच्छ्रवणत एवाशेषग्रहणदर्शनादितिकृतं प्रसंगेन, सेत्तमित्यादि, तदेतच्छुतज्ञानं, तदेतत्परोक्षमिति।" इसका भावार्थ पहले लिखा जा चुका है। इस प्रकार अंगप्रविष्ट श्रुतज्ञान और परोक्ष का विषय वर्णन समाप्त हुआ। नन्दी सूत्र भी समाप्त हुआ। श्री नन्दीसूत्रम् सम्पूर्णम् *509 *

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