Book Title: Nandi Sutram
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Bhagwan Mahavir Meditation and Research Center

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Page 538
________________ मनुष्यश्रेणिका-परिकर्म के 14-14 भेद हैं। उनमें सबसे पहला भेद मातृकापद है। सम्भव है 46 मातृकापदों का अन्तर्भाव इन्हीं दो पदों में किया गया हो, कुछ मातृकापद सिद्धश्रेणिकापरिकर्म में हों और कुछ मनुष्यश्रेणिका-परिकर्म में, इस प्रकार इन्हीं दो श्रेणियों में मातृकापदों का प्रयोग किया है, अन्य किसी भी अधिकार में मातृकापदों का प्रयोग नहीं किया है। ऐसा समवायांग सूत्र से और प्रस्तुत नन्दी सूत्र से ज्ञात होता है। उक्त दोनों सूत्रों में "माउयापयाणि"-बहु वचनान्त पद दिया है। इससे भी यही ध्वनित होता है कि प्रत्येक दो श्रेणियों में अनेकों ही मातृकापद हैं। सम्भव है दोनों में 23-23 अथवा न्यूनाधिक पद हों। प्रतीत ऐसा होता है कि 46 मातृका पद दोनों श्रेणियों में विभक्त किए हैं। उक्त दो परिकर्मों में सिद्धों तथा मनुष्यों का वर्णन है। सूत्रगत शब्दों का आशय स्पर्श कर यह सिद्धश्रेणिका परिकर्म का संक्षिप्त विवरण लिखा है। -संपादक - चित्रान्तर-गण्डिकानुयोग का दिग्दर्शन ऋषभदेव भगवान का शासन पचास लाख करोड़ सागरोपम से भी अधिक काल तक अर्थात् अजितनाथ भगवान के शासन प्रारम्भ होने तक निरन्तर चला, तदनन्तर पहले शासन की इति श्री हुई। . आचार्य मलयगिरि ने नन्दीसूत्र की वृत्ति में चित्रान्तर गण्डिका का परिचय अपनी मति-कल्पना से नहीं, अपितु पूर्वाचार्यों के द्वारा जो उन्हें सामग्री उपलब्ध हुई, उसके आधार पर निम्नलिखित रूप से दिया है जो कि विशेष मननीय है ऋषभदेव और अजित तीर्थंकर के अन्तराल में ऋषभवंशज जो भी राजा हुए हैं, उनकी अन्य गतियों को छोड़कर केवल शिवगति और अनुत्तरोपपातिक इन दो गतियों की प्राप्ति का प्रतिपादन करने वाली गण्डिका चित्रान्तर-गण्डिका कहलाती है। इसका पूर्वाचार्यों ने ऐसा प्ररूपण किया है कि सगर चक्रवर्ती के सुबुद्धि नामक महामात्य ने अष्टापद पर्वत पर सगर चक्रवर्ती के पुत्रों के समक्ष भगवान ऋषभदेव के वंशज आदित्ययश आदि राजाओं की सुगति का इस प्रकार वर्णन किया है-उक्त नाभेय वंश के राजा राज्य का पालन करके अन्त समय में दीक्षा धारण कर संयम और तप की आराधना कर सब कर्मों का क्षय करके चौदह लाख निरन्तर क्रमशः सिद्धिगति को प्राप्त हुए। तदनंतर एक सर्वार्थसिद्धमहाविमान में। फिर चौदह लाख निरन्तर मोक्ष को प्राप्त हुए, तत्पश्चात् एक सर्वार्थसिद्ध महाविमान में। इसी क्रम से वे राजा मुनीश्वर होकर मोक्ष और सर्वार्थसिद्ध तब तक प्राप्त करते रहे जब तक कि सर्वार्थसिद्ध में एक-एक करके' असंख्य न हो गए। . 1. 33 सागरोपम आयु वाले सर्वार्थसिद्धविमान में संख्यात देवता रह सकते हैं, असंख्यात नहीं, च्यवन भी साथ-साथ होता रहता है। - * 529 *

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