Book Title: Nandi Sutram
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Bhagwan Mahavir Meditation and Research Center

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Page 532
________________ सर्वथा क्षय करके सिद्धत्व प्राप्त किया है उन्हें कर्म क्षय सिद्ध कहते हैं। इस प्रसंग में कर्मक्षय सिद्ध का ही अधिकार है, अन्य सिद्धों का नहीं। अथवा नामसिद्ध, स्थापनासिद्ध, द्रव्यसिद्ध और भावसिद्ध इनमें जो अर्थ भावसिद्ध से सम्बन्धित है, वही अर्थ यहां अभीष्ट है। इसी को अर्थपद कहते हैं। ४. पृथगाकाशपद-सभी सिद्धों ने आकाश प्रदेश समान रूप से अवगाहित नहीं किए, क्योंकि सबकी अवगाहना समान नहीं है। जघन्य अवगाहना वाले सिद्धों ने जितने आकाश प्रदेश अवगाहित किए हुए हैं, वे अनन्त हैं। जो एक प्रदेश अधिक अवगाहित हैं, वे भी अनन्त हैं। इसी प्रकार जो दो प्रदेश अधिक अवगाहित हैं, वे भी अनन्त हैं। इसी क्रम से एक-एक प्रदेश बढ़ाते हुए वहां तक बढ़ाना है, जहां तक उत्कृष्ट अवगाहना वाले सिद्धों ने अवगाहे हुए हैं, अन्ततोगत्वा वे सिद्ध भी अनन्त हैं। इस प्रकार का विवेचन जिस अधिकार में हो, उसे पृथगाकाश पद कहते हैं। . ५. केतुभूत-केतु, ध्वज को कहते हैं, भूत शब्द सदृश का वाचक है। जैसे ध्वज सर्वोपरि होता है, वैसे ही संसारी जीवों की अपेक्षा सिद्ध भगवान केतु-ध्वज के तुल्य सर्वोपरि हैं। क्योंकि वे उन्नति के चरमान्त में अवस्थित हो गए हैं। इस प्रकार सिद्धों के विषय में निरूपण करने वाले अधिकार को केतुभूत कहते हैं। कौन-से गुणों से वे केतुभूत हुए हैं ? इसका उत्तर इसमें वर्णित है। ... ६. राशिबद्ध-जो एक समय में, दो से लेकर एक सौ आठ सिद्ध हुए हैं, उन्हें राशिबद्ध कहते हैं। इनका क्रम इस प्रकार है-पहले समय में 2 से लेकर 32 पर्यन्त, दूसरे समय में 33 से लेकर 48 तक, तीसरे समय में 49 से लेकर 60 तक, चौथे समय में 61 से लेकर 72 तक, पांचवें समय में 73 से लेकर 84 तक, छठे समय में 85 से लेकर 96 तक, सातवें समय में 97 से लेकर 102 तक, और आठवें समय में 103 से लेकर 108 पर्यन्त सिद्ध होने वालों को संभव है राशिबद्ध कहते हों। एक समय में ज० एक और उ0 108 सिद्ध हो सकते हैं, क्योंकि कहा भी है बत्तासा अडयाला सट्ठी बावत्तरी य बोद्धव्वा। चुलसीई छन्नउई दुरहिय अठुत्तरसयं च ॥ नौवें समय में अन्तर पड़ जाना अवश्यंभावी है। अथवा 108 किसी भी एक समय में सिद्ध होने के अनन्तर अन्तर पड़ जाना अनिवार्य है। राशिबद्ध सिद्धों के अनेक प्रकार हैं, उपर्युक्त लिखित भी उनका एक प्रकार है। ७. एकगुण-सिद्धों में सबसे थोड़े अतीर्थसिद्ध, असोच्चाकेवलिसिद्ध, स्त्रीतीर्थंकर सिद्ध, जघन्य अवगाहना वाले सिद्ध, नपुंसकलिंगसिद्ध, गृहलिंगसिद्ध, पहली अवस्था में हुए सिद्ध, चरमशरीरीभव में पहली बार सम्यक्त्व प्राप्त करके होने वाले सिद्ध, इस प्रकार अनेक विकल्प किए जा सकते हैं। संभव है इस अधिकार में ऐसा ही वर्णन हो, इस कारण इस *523

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