Book Title: Nandi Sutram
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Bhagwan Mahavir Meditation and Research Center

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Page 506
________________ जीवा, अनंता अजीवा, अणंता भवसिद्धिया, अनंता अभवसिद्धिया, अनंता सिद्धा, अनंता असिद्धा पण्णत्ता । १. भावमभावा हेऊमहेऊ, कारणमकारणे चेव । जीवाजीवा भविअमभविआ सिद्धा असिद्धाय ॥ ९२ ॥ छाया- -इत्येतस्मिन् द्वादशांगे गणिपिटकेऽनन्ता भावाः, अनन्ता अभावाः, अनन्ता तवाः, अनन्ता अहेतवः, अनन्तानि कारणानि, अनन्तान्यकारणानि, अनन्ता जीवाः, अनन्ता अजीवाः, अनन्ता भवसिद्धिका, अनन्ताः अभवसिद्धिकाः, अनन्ता सिद्धाः, अनन्ता असिद्धाः प्रज्ञप्ताः । १. भावाऽभाव हेत्वहेतू, कारणाऽकारणे चेव । जीवा अजीवा भविका अभविकाः सिद्धा असिद्धाश्च ॥ ९२ ॥ भावार्थ- इस द्वादशांग गणिपिटक में अनन्त जीवादि भाव-पदार्थ, अनन्त अभाव, अनन्त हेतु, अनन्त अहेतु, अनन्त कारण, अनन्त अकारण, अनन्त जीव, अनन्त अजीव, अनन्त भवसिद्धिक, अनन्त अभवसिद्धिक, अनन्त सिद्ध और अनन्त असिद्ध कथन किए गए हैं। • भाव और अभाव, हेतु और अहेतु, कारण- अकारण, जीव- अजीव, भव्य - अभव्य, सिद्ध, असिद्ध, इस प्रकार संग्रहणी गाथा में उक्त विषय संक्षेप में उपदर्शित किया गया है। टीका-इस सूत्र में सामान्यतया बारह अंगों का वर्णन किया गया है। इस बारह अंगरूप-गणिपिटक में अनन्त सद्भावों का वर्णन किया गया है। इसके प्रतिपक्ष अनन्त अभाव पदार्थों का वर्णन किया है। जैसे सर्व पदार्थ अपने स्वरूप में सद्रूप हैं और परपदार्थ की अपेक्षा असद्रूप हैं। जैसे घट-पट आदि पदार्थों में परस्पर अन्योऽन्याभाव है यथा जीवो जीवात्मना भावरूपोऽजीवात्मना च अभावरूपः । जीव में अजीवत्व का अभाव है और अजीव में जीवत्व का अभाव है, इत्यादि । हेतु - अहेतु - अनन्त हेतु हैं और अहेतु भी अनन्त हैं, जो अभीष्ट अर्थ की जिज्ञासा में . कारण हो, वह हेतु कहलाता है - यथा हिनोति - गमयति जिज्ञासितधर्माविशिष्टार्थमिति हेतु ते चानन्ताः तथाहि वस्तुनोऽनन्ता धर्मास्ते च तत्प्रतिबद्धधर्मविशिष्टवस्तुगमकास्ततोऽनन्ता वो भवन्ति, यथोक्तप्रतिपक्षभूता अहेतवः । कारण-अकारण-जैसे घट का उपादान कारण मृत्तिकापिण्ड है तथा निमित्त दण्ड, चक्र, चीवर एवं कुलाल है और पट का उपादान कारण तन्तु हैं तथा निमित्त कारण खड्डी आदि बुनती के साधन, जुलाहा वगैरह हैं। ये घट-पट परस्पर स्वगुण की अपेक्षा से कारण और गुण की अपेक्षा से अकारण हैं । अनन्त - जीव हैं और अनन्त अजीव हैं। भवसिद्धिक 497

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