Book Title: Nandi Sutram
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Bhagwan Mahavir Meditation and Research Center

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Page 505
________________ स एवमात्मा, एवं ज्ञाता, एवं विज्ञाता, एवं चरण-करणप्ररूपणाऽऽख्यायते, स एष दृष्टिवादः ॥ सूत्र ५६ ॥ भावार्थ-दृष्टिवाद की संख्यात वाचनाएं, संख्यात अनुयोगद्वार, संख्यात वेढ-छन्द, संख्यात श्लोक, संख्यात प्रतिपत्तिएं, संख्यात नियुक्तिएं, और संख्यात संग्रहणिएं हैं। वह अंगार्थ से द्वादशम अंग है, एक श्रुतस्कन्ध है। उसमें चौदह पूर्व हैं, संख्यात वस्तु-अध्ययन विशेष, संख्यात चूलिका वस्तु, संख्यात प्राभृत, संख्यात प्राभृतप्राभृत, संख्यात प्राभृतिकाएं, संख्यात प्राभृतिकाप्राभृतिकाएं हैं। यह परिमाण में संख्यात पद सहस्र है। अक्षर संख्यात और अनन्त गम-अर्थ हैं। अनन्त पर्याय, परिमित त्रस और अनन्त स्थावर हैं। शाश्वत-धर्मास्तिकाय, कृत-निबद्ध, निकाचित जिनप्रणीत भाव-पदार्थ कहे गये हैं, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन से स्पष्टतर किए गए हैं। ___दृष्टिवाद का अध्येता तद्रूप आत्मा हो जाता है, भावों का यथार्थ ज्ञाता और विज्ञाता बन जाता है। इस तरह चरण-करण की प्ररूपणा इस अंग में की गयी है। इस प्रकार यह दृष्टिवादांग श्रुत का विवरण सम्पूर्ण हुआ। ___टीका-इस बारहवें अंगसूत्र में पूर्व की भांति परिमित वाचनाएं हैं, संख्यात अनुयोगद्वार. : हैं, इत्यादि सब वर्णन पहले की तरह जानना। किन्तु इस में वस्तु-प्राभृत-प्राभृतप्राभृत इनकी व्याख्या पहले नहीं की गई और न ये शब्द पहले कहीं आए हैं। पूर्वी में जो बड़े-बड़े अधिकार हैं, उन को वस्तु कहते हैं। उन से छोटे-छोटे अधिकारों की प्राभृत कहते हैं। सबसे छोटे अधिकार को प्राभृतप्राभृत कहते हैं। एक पूर्व में जितने विशिष्ट विषय हैं, उनका विभाजन करने से जितने विभाग बनते हैं। उतने वस्तु कहलाते हैं। तत्सम्बन्धित जो छोटे-छोटे प्रकरण हैं, वे प्राभृत। जो सब से छोटे-छोटे प्रकरण हैं, उन्हें प्राभृत-प्राभृत कहते हैं। यह अंग सब से महान होते हुए भी इसके अक्षरों की संख्या संख्यात ही है। अनन्तं गम हैं और अनन्त पर्याय हैं। असंख्यात त्रस और अनन्त स्थावरों का वर्णन है। द्रव्यार्थिक नय' से नित्य तथा पर्यायार्थिक नय से अनित्य हैं। इसमें संग्रहणी गाथाएं भी संख्यात ही हैं। एक प्राभृतप्राभृत में जितने विषय निरूपण किए हैं, उनको कुछ एक गाथाओं में संकलित करना, उन्हें संग्रहणी गाथा कहते हैं। इस पाठ में चूलवत्थू शब्द आया है। इसका भाव यह है-जो चूलिकाएं बताई हैं, उन में भी वस्तु हैं, वे भी संख्यात हैं। इस में एक ही श्रुतस्कन्ध है। इस के अध्ययन करने वाला आत्मा तद्रूप हो जाता है, एवं ज्ञाता, विज्ञाता हो जाता है। शेष वर्णन पहले की भांति जानना चाहिए। द्वादशांग में संक्षिप्त अभिधेय मूलम्-इच्चेइयम्मि-दुवालसंगे गणिपिडगे अणंता भावा, अणंता अभावा, अणंता हेऊ, अणंता अहेऊ, अणंता कारणा, अणंता अकारणा, अणंता * 496 *

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