Book Title: Nandi Sutram
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Bhagwan Mahavir Meditation and Research Center

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Page 500
________________ १. से किं तं मूलपढमाणुओगे ? मूलपढमाणुओगे णं अरहंताणं भगवंताणं पुष्वभवा, देवगमणाई, आउं, चवणाई, जम्मणाणि, अभिसेआ, रायवरसिरीओ, पव्वज्जाओ, तवा य उग्गा, केवलनाणुप्पाओ, तित्थपवत्तणाणि अ, सीसा, गणा, गणहरा, अज्जपवत्तिणीओ, संघस्स चउव्विहस्स जं च परिमाणं, जिणमणपज्जव - ओहिनाणी, सम्मत्तसुअनाणिणो अ, वाई, अणुत्तरगई अ, उत्तरवेडव्विणो अ मुणिणो, जत्तिया सिद्धा, सिद्धि हो जहा देसिओ, जच्चिरं च कालं पाओवगया, जे जहिं जत्तिआई भत्ताई छेइत्ता अंतंगडा मुणिवरुत्तमा तिमिरओघविप्पमुक्का, मुक्खसुहमणुत्तरं च पत्ता। एवमन्ने अ एवमाइभावा मूलपढमाणुओगे कहिआ से तं मूलपढमाणुओगे। " छाया - अथ कः सोऽनुयोग : ? अनुयोगो द्विविध प्रज्ञप्तः, तद्यथा १. मूलप्रथमानुयोगः, २. गण्डिकानुयोगश्च । १. अथ कः स मूलप्रथमानुयोगः ? मूलप्रथमानुयोगेऽर्हतां भगवतां पूर्वभवाः, देवलोक गमनानि, आयु: (यूंषि), च्यवनानि, जन्मानि, अभिषेकाः राज्यवरश्रियः, प्रव्रज्याः, तपांसि चोग्राणि, केवलज्ञानोत्पाद:, तीर्थप्रवर्तनानि च, शिष्याः, गणाः, गणधराः, आर्याः प्रवर्त्तिन्यश्च, संघस्य चतुर्विधस्य यच्च परिमाणं, जिन मन: पर्यवावधिज्ञानिनः समस्तश्रुतज्ञानिनश्च, वादिनः, अनुत्तरगतयश्च, उत्तरवैकुर्विणश्च मुनयः, यावन्तः सिद्धाः, सिद्धिपथो यथादेशितः, यावच्चिरञ्च कालं पादपोपगता:, ये यत्र यावन्ति भक्तानि छित्त्वाऽन्तकृतो मुनिवरोत्तमास्तिमिरौघविप्रमुक्ता मोक्षसुखमनुत्तरञ्च प्राप्ताः एवमन्ये चैवमादि भावा मूलप्रथमानुयोगे कथिताः, स एष मूलप्रथमानुयोगः । . पदार्थ-से किं तं अणुओगे ? - वह अनुयोग किस प्रकार है ?, अणुओगे - अनुयोग, दुविहे पण - दो प्रकार का है, तंजहा- जैसे, मूलपढमाणुओगे - मूलप्रथमानुयोग, य-और, गंडिआणुओगे-गण्डिकानुयोग । से किं तं मूलपढमाणुओगे - अथ वह मूलप्रथमानुयोग किस प्रकार है ?, मूलपढमाणुओगे णं- मूलप्रथमानुयोग में 'णं' वाक्यालंकार में, अरहंताणं भगवंताणं- अर्हन्त भगवन्तों के, पुव्वभवा - पूर्वभव, देवगमणाई - देवलोक में जाना, आउं - देवलोक में आयु, चवणाई - स्वर्ग से च्यवन, जम्मणाणि - तीर्थंकर रूप में जन्म, अभिसेआ - अभिषेक तथा, रायवरसिरीओराज्याभिषेक प्रधान राज्यलक्ष्मी, पव्वज्जाओ–प्रव्रज्या, य-और, तवा-तप, उग्गा-उग्रघोर तप, केवलनाणुप्पाओ - केवलज्ञान की उत्पत्ति, तित्थपवत्तणाणि अ- और तीर्थ की प्रवृत्ति करना, सीसा - उन के शिष्य, गणा-गच्छ, गणहरा - गणधर, अज्जपवत्तिणीओ अ- आर्यिकाएं और प्रवर्त्तिनियें, संघस्स चउविहस्स - चार प्रकार के संघ का, जं च-जो, 491

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