Book Title: Nandi Sutram
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Bhagwan Mahavir Meditation and Research Center

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Page 445
________________ अरिहन्त भगवन्तों के प्रवचनों में, श्रीसंघ में, तथा केवलिभाषित धर्म में नि:शंकित रहना, आत्मतत्त्व पर श्रद्धा रखना, मोक्ष के उपायों में नि:शंकित रहना, शंका-कलंक-पंक से सर्वथा दूर रहना, उसे नि:शंकित दर्शनाचार कहते हैं। जैसे सच्चा पारखी असली को छोड़कर नकली की आकांक्षा नहीं करता, वैसे ही सच्चे देव, गुरु, धर्म और शास्त्र के अतिरिक्त अन्य कुदेव, कुगुरु, धर्माभास, शास्त्राभास की भूलकर भी आकांक्षा न करना, नि:कांक्षित दर्शनाचार है। आचरण किए हुए धर्म का फल मुझे मिलेगा या नहीं, इस प्रकार धर्मफल के प्रति सन्देह न करना निर्विचिकित्सा नामक दर्शनाचार है। भिन्न-भिन्न दर्शनों की युक्तियों से, मिथ्यादृष्टियों की ऋद्धि से, आडम्बर, चमत्कार, विद्वत्ता, उनके साहित्य, भाषण, भय प्रलोभनों से दिङ्मूढ़ की तरह न बनना, संसार और कर्मों के वास्तविक स्वरूप को समझते हुए अपने हिताहित को समझकर जीवन यापन करना, स्त्री, पुत्र, धन आदि में गृद्ध होकर मूढ न बनना ही अमूढदृष्टि नामक दर्शनाचार है। उक्त चार दर्शनाचार व्यक्ति से सम्बन्धित हैं। जो संघसेवा करते हैं, साहित्य सेवी हैं, तप-संयम की आराधना करने वाले हैं, जिनकी प्रवृत्ति मानवहिताय, प्राणिहिताय और धर्मक्रिया में बढ़ रही है, उनका उत्साह बढ़ाना, जिससे उनकी उत्साहशक्ति बढ़े, वैसा प्रयत्न करना, उवबूह नामक दर्शनाचार कहलाता है। धर्म से गिरते हुए, अरति परीषह से पीड़ित हुए, सहधर्मी व्यक्तियों को धर्म में स्थिर करना, इसे स्थिरीकरण दर्शनाचार कहते हैं। सहधर्मीजनों पर वत्सलता रखना, उन्हें देखकर प्रमुदित होना, उनका सम्मान करना वात्सल्य दर्शनाचार है। जिससे शासनोन्नति हो, सर्वसाधारण जनता धर्म से प्रभावित हो, वैसी क्रिया करना तथा जिससे धर्म की हीलना, निन्दना हो, वैसी क्रिया न करना, उसे प्रभावना दर्शनाचार कहते हैं, जैसे कि कहा भी है निस्संकिय निक्कंक्खिय निवितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य। उवबूह थिरीकरणे, वच्छल्ल पभावणे अट्ठ ॥ ये चार दर्शनाचार समष्टि से सम्बन्धित हैं। इनसे भी सम्यक्त्व स्वच्छ एवं निर्मल होता है। अत: इधर भी साधकों को ध्यान देना चाहिए।' अणुव्रत देशचारित्र है और महाव्रत सार्वभौम चारित्र है। जिससे संचित कर्म या कर्मों की सत्ता ही क्षय हो जाए, उसे चारित्र कहते हैं। चारित्र की रक्षा चारित्राचार से ही सकती है। चारित्राचार प्रवृत्ति और निवृत्ति, इस प्रकार दो भागों में विभाजित है १. ईर्यासमिति-छः काय की रक्षा करते हुए यतना से चलना। २. भाषा समिति-सत्य एवं मर्यादा की रक्षा करते हुए यतना से बोलना। ३. एषणा समिति-अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की रक्षा करते हुए यतना से आजीविका करना, निर्दोष भिक्षा ग्रहण करना। -- 436 -

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