Book Title: Nandi Sutram
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Bhagwan Mahavir Meditation and Research Center

View full book text
Previous | Next

Page 389
________________ चक्षुरिन्द्रिय का अर्थावग्रह होता है, व्यंजनावग्रह नहीं। शेष सब वर्णन पूर्ववत् समझना चाहिए। नोइन्द्रिय पद मन का वाचक है, उस की स्पष्टता के लिए सूत्रकार ने स्वप्न का उदाहरण दिया है। स्वप्न में द्रव्य इन्द्रियां काम नहीं करतीं, भावेन्द्रियां और मन, ये ही काम करते हैं। व्यक्ति जो स्वप्न में सुनता है, देखता है, सूंघता है, चखता है, छूता है और चिन्तन-मनन करता है, इन में मुख्यंता मन की है। जाग्रत होने पर देखे हुए स्वप्न के दृश्यों को या कही हुई या सुनी हुई वार्ता को अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा तक ले आता है। कोई बात अवग्रह तक ही रह जाती है। इस प्रकार प्रतिबोधक और मल्लक के दृष्टान्तों से व्यंजनावग्रह का वर्णन करते हुए प्रसंगवश मतिज्ञान के 28 भेदों का वर्णन भी विस्तार पूर्वक कर दिया गया है। मतिज्ञान के 336 भेद भी हो जाते हैं, जैसे कि वृत्तिकार लिखते हैं “एते चावग्रहादयोऽष्टाविंशतिभेदाः प्रत्येकं बह्वादिभिः सेतरैः सर्वसंख्यया द्वादशसंख्यैर्भेदैर्भिद्यमाना यदा विवक्ष्यन्ते तदा षट्त्रिंशदधिकं भेदानां शतत्रयं भवति, तत्र बह्वादयः शब्दमधिकृत्य भाव्यन्ते-शङ्खपटहादिनानाशब्दसमूहं पृथगेकैकं, यदाऽवगृह्णाति तथा बह्ववग्रहः, यदा त्वेकमेव कञ्चिच्छब्दमवगृह्णाति तदाबह्ववग्रहः, तथा शंखपटहादिनानाशब्दसमूहमध्ये एकैकं शब्दमनेकैः पर्यायैः स्निग्धगाम्भीर्यादिभिर्विशिष्टयथावस्थितं तदावगृह्णाति तदा स बहुविधावग्रहः, यदा त्वेकमनेकं वा शब्दमेकपर्यायविशिष्टमवगृह्णाति तदा सोऽबहुविधावग्रहः । " यदा तु अचिरेण जानाति तदा स क्षिप्रावग्रहः, यदा तु चिरेण तदाऽक्षिप्रावग्रहः, तमेव शब्द स्वरूपेण यदा जानाति न लिंगपरिग्रहात् तदांऽनिश्रितावग्रहः, लिंगपरिग्रहेण त्ववगच्छतो निश्रितावग्रहः, अथवा परधर्मैर्विमिश्रितं यद् ग्रहणं तन्मिश्रितावग्रहः, यत्पुनः परधर्मैरमिश्रितस्य ग्रहणं तदमिश्रितावग्रहः । तथा निश्चितमवगृह्णतो निश्चितावग्रहः, संदिग्धमवगृह्णतः संदिग्धावग्रहः, सर्वदैव बह्वादिरूपेणावगृह्णतो ध्रुवावग्रहः, कदाचिदेव पुनर्बह्वादिरूपेणावगृह्णतोऽध्रुवावग्रहः, एष च बहु, बहुविधादिरूपोऽवग्रहो विशेषसामान्यावग्रहरूपो द्रष्टव्यः । नैश्चयिकस्यावग्रहस्य सकलविशेषनिरपेक्षानिर्देश्यसामान्यमात्रग्राहिण एक सामयिकस्य बहुविधादिविशेषग्राहकत्वासम्भवात्, बह्वादीनामनन्तरोक्तं व्याख्यानं, भाष्यकारोऽपि प्रमाणयति " नाणा सद्दसमूह, बहुविहं सुणेइ भिन्नजातीयं । बहुविहमणेगभूयं, एक्केक्कं निद्धमहुराइ ॥ खप्पमचिरेण तं चिअ, सरूवओ जमनिस्सयमलिंगं । निच्छियमसंसयं जं, ध्रुवमच्चंतं न उ कयाइ ॥ एत्तो चिय पडिवक्खं, साहेज्जा निस्सिए विसेसोऽयं । परधम्मेहिं विमिस्सं, मिस्सियमविमिस्सियं इयरं ॥ " . ❖ 380 ❖

Loading...

Page Navigation
1 ... 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546