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भी पद कहते हैं, जैसे कि प्रज्ञापना सूत्र में 36 पद हैं, उनमें कोई छोटा है और कोई बड़ा, सब तुल्य नहीं हैं। इसी तरह युग्म, विशेषक और कुलक इन्हें भी पद कहते हैं, ये सब अर्थपद सम्बन्धित हैं।
छन्द शास्त्रानुसार श्लोक के एक चरण को पद कहते हैं, फिर भले ही वह श्लोक मात्रिकछन्द में हो या वर्णछन्द में। किसी भी एक चरण को प्रमाण पद कहते हैं। अथवा अक्षरों के परिमित प्रमाण को प्रमाणपद कहते हैं। जैसे अनुष्टुप् श्लोक के एक चरण में आठ अक्षर होते हैं, बत्तीस अक्षरों का एक श्लोक होता है, एक श्लोक में चार पद होते हैं, इसे भी प्रमाणपद कहते हैं, अथवा मुहावरे में कहा जाता है, अमुक व्यक्ति ने पांच हजार या दस हजार शब्दों में भाषण दिया है, इसे प्रमाण पद कहते हैं।
श्वेताम्बर आम्नाय के अनुसार अर्थपद के अन्तर्गत इह यत्रार्थोपलब्धिस्तत्पदम् यह मान्यता अधिक प्रामाणिक सिद्ध होती है। क्योंकि आचार्य हरिभद्र और आचार्य मलयगिरिदोनों की वृत्ति में पद की परिभाषा उपर्युक्त शैली से ही की गयी है। यह परिभाषा हृदयंगम भी होती है, और यह परिभाषा आधुनिक ही नहीं, प्रत्युत् बहुत ही प्राचीन है । पद परिमाण का वर्णन अंगप्रविष्ट आगमों में ही देखने को मिलता है । अंगबाह्य आगमों में पद परिमाण का कोई उल्लेख नहीं है । प्रज्ञापना सूत्र में अध्ययन के स्थान पर पद का प्रयोग किया है।
दिगम्बर आम्नाय के अनुसार पद का लक्षण मध्यमपद से ग्रहण किया है। उनका कहना है - जो अंग शास्त्रों में पद परिमाण की गणना लिखी है, वह मध्यम पद से ही समझनी चाहिए, जैसे 16 अर्ब, 34 करोड़ 83 लाख 7 हजार 8 सौ 88 अक्षरों का एक मध्यमपद कहलाता है। इतने अक्षरों के अनुष्टुप् छन्द 51 करोड़ 8 लाख, 84 हजार, 6 सौ इक्कीस बनते हैं। उतने श्लोकों के परिमाण को एक पद कहते हैं, इस हिसाब से आचारांग में 18000 पद हैं।
कोई बिशिष्ट बुद्धिमान और विद्वान यदि दस अनुष्टुप् श्लोकों का उच्चारण प्रत्येक मिनिट में करे और इसी तरह निरन्तर 20 घण्टे बिना किसी अन्य कार्य किए उच्चारण करता ही रहे, तो वह एक वर्ष में 43,20000 श्लोकों का ही उच्चारण कर सकता है, इससे अधि क नहीं। गौतम स्वामी जी 30 वर्ष तक भगवान महावीर की चरण-शरण में रहे। सब कार्य बन्द करके जीवनपर्यन्त दिन रात श्लोक रचते रहना दुःशक्य ही नहीं, अपितु अशक्य ही है। यदि रच भी लें, तो वह एक पद का तीसरा हिस्सा भी रच नहीं सकते, जब कि एक पद 510884621 अनुष्टुप् श्लोकों के परिमाण जितना होता है। इस गणना से 18000 पद तो आचारांग के, 36000 पद सूत्रकृतांग के इस प्रकार द्वादशांग वाणी के 184 शंख से अधिक और 185 शंख से न्यून इतने अक्षरों का श्रुत परिमाण का अध्ययन करना, कैसे संगत बैठ सकता है? भद्रबाहु स्वामी जी ने स्थूलिभद्र जी को दस पूर्वो का ज्ञान अर्थ सहित कराया है, शेष चार पूर्वों का ज्ञान अर्थ रूप में नहीं, यह बात भी कैसे संगत हो सकती है ? जब कि वे
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