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मिलनी दुर्लभ हो जाए, उसे दुर्भिक्ष कहते हैं। जैन भिक्षु बयालीस दोष टालकर शुद्ध भिक्षा ग्रहण करते हैं वे सदोष भिक्षा मिलने पर भी नहीं ग्रहण करते। निर्दोष भिक्षा भी अभिग्रह फलने पर ही लेते हैं, अन्यथा नहीं। वि.सं. प्रारम्भ होने से पूर्व ही दुष्काल पड़ने लग गए। एक दुष्काल व्यापक रूप से 12 वर्षीय और दूसरा 7 वर्ष पर्यन्त इत्यादि अनेक बार छोटे-बड़े दुष्काल पड़े। परिणामस्वरूप दुष्काल में निर्दोष भिक्षा न मिलने से बहुत से मुनिवर आगमों का अध्ययन तथा वाचना विधिपूर्वक न ले सके और न दे सके। इस कारण आगमधर मुनिवरों के स्वर्ग-सिधारने से आगमों का पठन-पाठन कम हो गया और कुछ अप्रमत्त आगमधर जैसे-तेसे इतस्ततः परिभ्रमण करके जीवन निर्वाह करते रहे तथा आगम- वाचना भी यथातथा चालू रखी। कण्ठस्थ आगम ज्ञान कुछ-कुछ विस्मृत भी हो गया, कुछ स्थल बीच-बीच में शिथिल हो गए, फिर भी यथा समय प्रामाणिकता से आगमों का पुनरुद्धार आगमधर करते ही रहे। ४. धारणा शक्ति की दुर्बलता ..
जहां तक चौदह पूर्वो का ज्ञान धारणा शक्ति की दुर्बलता से क्षीण होत-होते दस पूर्वो का ज्ञान रह गया, वहां तक तो 11 अंग सूत्रों की वाचनाओं का आदान-प्रदान अविच्छिन्नरूप से होता रहा। तत्पश्चात् जैसे-जैसे पूर्वो के सीखने-सिखाने का क्रम कम होता रहा, वैसे-वैसे 11 अंग सूत्रों का भी। क्योंकि उस समय आगम लिखित रूप में नहीं थे, कण्ठस्थ सीखनेसिखाने की परिपाटी चली आ रही थी। जब तक धारणा शक्ति की प्रबलता थी, तब तक आगमों को कण्ठस्थ करने की और कोष्ठ बुद्धि रखने की पद्धति चली आ रही थी। आगमों का लिखना बिल्कुल निषिद्ध था। यदि किसी ने एक गाथा भी लिखी तो वह प्रायश्चित्त का भागी बनता था, क्योंकि वे लिखना आरम्भ-परिग्रह तथा जिनवाणी की अवहेलना समझते थे, वे ज्ञानी होते हुए निग्रंथ थे। आवश्यकीय अत्यल्प वस्त्र व पात्र के अतिरिक्त और अपने पास कुछ भी नहीं रखते थे, उनकी दोनों समय देख-भाल भी करते थे। जैसे कोल्हू में कोई जीव पड़ जाए, तो उसका बचना बहुत कठिन होता है, वैसे ही पुस्तक में कोई जीव उत्पन्न हो जाए या प्रविष्ट हो जाए तो उसकी प्रतिलेखना करनी कठिन होती है, उससे जीव-जन्तुओं की हिंसा के भय से और परिग्रह बढ़ जाने से, निष्परिग्रह व्रत दूषित हो जाएगा इस भय से, पुस्तक जहां तहां रखने से आगमों की आशातना के भय से लिखने की पद्धति उन्होंने चालू ही नहीं की। ज्यों-ज्यों धारणा शक्ति का ह्रास होता गया, त्यों-त्यों निग्रंथ भी सग्रन्थ होते गए और आगमों को लिपिबद्ध करने का आविष्कार होने लगा। पहले विद्या कण्ठस्थ होती थी, आजकल पुस्तकों में रह गई है। यह धारणा शक्ति के ह्रास का परिणाम है। ५. आगम सीखने वालों की अल्पता
कुछ साधु पिछली आयु में दीक्षित हुए। अत: वे सीखने में समर्थ न हो सके। कुछ तप
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