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अपना कुप्रभाव डालेगा, वह निष्फल हो जाएगा और आपका शासन चमकता ही रहेगा। __ इन्द्र के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् महावीर ने कहा-इन्द्र ! ऐसा कोई समर्थ व्यक्ति न हुआ, न है और न होगा-जो अपनी आयु को बढा सके । इन्द्र ! तुम इतने सशक्त हो जिसकी अखण्ड -आज्ञा बत्तीस लाख देवविमानों पर चल रही है। क्या तुम उस भस्मराशि की गति को अवरुद्ध या बदलने में समर्थ हो? इन्द्र ने कहा-भगवन् ! मैं किसी भी ग्रहगति को रोकने या बदलने में समर्थ नहीं हूँ। तब भगवान् ने कहा-मैं दो घड़ी की अपनी आयु को कैसे बढ़ा सकता हूँ। विश्व का जो अनादि नियम है, उसे बढ़ाने, परिवर्तन करने तथा नष्ट करने की किसी में शक्ति नहीं है। जो कुछ जीव कर सकता है, वही उसके परिवर्तन करने में समर्थ है। उसकी शक्ति से जो कुछ बाहर है, वह सदा बाहर ही है।
यह उत्तर सुनकर इन्द्र ने विचार किया भगवान् सर्वज्ञ, सर्वदर्शी हैं, जो कुछ इन्होंने अपने ज्ञान में जाना और देखा है, वह सदा सत्य है, निश्चित है, जो कुछ हो सकता है, वह जीव के प्रयोग से हो सकता है और जो नहीं हो सकता, वह तीन काल में भी नहीं हो सकता। इन्द्र को इस रहस्य का ज्ञान हुआ। जो इन्द्र ने निवेदन किया था, उसका ज्ञान भगवान को पहले से ही था। ___ यह जिन शासन भस्मराशिं महाग्रह के प्रभाव से अनेक विकट परिस्थितियों का सामना करते हुए, दैविक और भौतिक संकटों को झेलते हुए बड़े-बड़े मिथ्यादृष्टि एवं अज्ञानियों के द्वारा अन्धाधुन्ध प्रहारों से अपने आप को बचाते हुए, मन्थर गति से चलता ही रहा। दो हजार वर्ष के मध्यकाल में बहुत से आगमों का तथा अध्ययनों का व्यवच्छेद हो गया। इस समय अवशिष्ट आगम ही भावतीर्थ के मूलाधार हैं। २. हुण्डावसर्पिणी ___अनन्तकाल के बाद हुण्ड अवसर्पिणी का चक्र आता है। इस हुण्ड अवसर्पिणी काल में दस अच्छेरे हुए, जिनका अवतरण अनन्त काल के बाद हुआ है। जब तीसरे और चौथे आरे में दस अच्छेरे हुए, तब पंचम आरे में हुण्ड अवसर्पिणी काल का कोई दुष्प्रभाव न पड़े, यह कैसे हो सकता है। इस काल में असंयतों का मान-सम्मान, आदर-सत्कार, पूजा-प्रतिष्ठा, बोलबाला अधिक रहा है और संयतों का बहुत ही कम। जिस राज्य में जाली सिक्के का दौर-दौरा अधिक बढ जाए और असली सिक्के का कम, उस राज्य की स्थिति जैसे डांवाडोल हो जाती है, वैसे ही इस काल का स्वभाव समझना चाहिए। यह काल भी आगम-व्यवच्छेद होने में कारण रहा है। ३. दुर्भिक्ष का प्रकोप
दुर्भिक्ष, अन्न-अभाव, दुष्काल ये सब एक ही अर्थ के वाची हैं। जब भिक्षु को भिक्षा
1. कल्पसूत्र व्याख्यान छठा।