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स्पष्ट एवं सुगम बनाने के लए भद्रबाहुजी ने भरसक प्रयास किया है। आवश्यक, निशीथ, दशवैकालिक, बृहत्कल्प, उत्तराध्ययन, सूर्यप्रज्ञप्ति, आचारांग और सूत्रकृतांग आदि सूत्रों पर नियुक्तियों का प्रणयन किया गया, किन्तु नन्दीसूत्र पर अभी तक कोई भी नियुक्ति मेरे दृष्टिगोचर नहीं हो सकी। सभी आगमों पर नियुक्तियां नहीं लिखी गईं। हां, इतना तो दृढ़ता से अवश्य कहा जा सकता है कि देववाचकजी से नियुक्तिकार पहले हुए हैं। नन्दीसूत्र पर चूर्णि
चूर्णिकारों में जिनदासमहत्तर का स्थान अग्रगण्य है । इनका समय वि.सं. सातवीं शती का माना जाता है। जिनदासजी ने आचारांग, सूत्रकृतांग, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, निशीथ, दशाश्रुतस्कन्ध एवं नन्दीसूत्र आदि अनेक सूत्रों पर चूर्णि की रचना की। जैसे चूर्ण में अनेक वस्तुओं की सम्मिश्रणता होती है, वैसे ही जिस रचना में मुख्यतया प्राकृत भाषा है और संस्कृत, अर्द्धमागधी और शौरसेनी आदि देशी भाषाओं का भी जिसमें सम्मिश्रण हो, उसे चूर्ण कहते हैं। चूर्णियां प्राय: गद्य हैं, कहीं-कहीं पद्य भी प्रयुक्त हैं। चूर्णिकार का लक्ष्य भी क्लिष्ट विषय को विशद करने का रहा है। नन्दीसूत्र में चूर्णि का ग्रन्थाग्र अनुमानत: 1500 गाथाओं के परिमाण जितना है।
नन्दीसूत्र पर हारिभद्रीया वृत्ति
याकिनीसूनु हरिभद्रजी ब्राह्मणवर्ण से आए हुए, विद्वच्छिरोमणि युगप्रवर्त्तक जैनाचार्य हुए हैं, जिन्होंने अपने जीवन में शास्त्रवार्ता, षड्दर्शनसमुच्चय, धूर्ताख्यान, विंशतिविंशिका, समराइच्चकहा आदि अनेक स्वतन्त्र ग्रन्थ और अनेक आगमों पर संस्कृत वृत्तियां लिखीं। सुना जाता है, उन्होंने अपने जीवन में 1444 ग्रन्थों का निर्माण किया, उनमें कतिपय ही आजकल उपलब्ध हैं, अधिकतर काल - दोष से व्यवच्छिन्न हो गए। उनकी गति संस्कृत और प्राकृत भाषा में समान थी। कथा साहित्य प्राय: प्राकृत भाषा में और दर्शन साहित्य संस्कृत भाषा में रचना करने वालों में आपका नाम विशेषोल्लेखनीय है। आपने दशवैकालिक, आवश्यक, प्रज्ञापना इत्यादि अनेक सूत्रों पर संस्कृत वृत्तियां लिखीं। नन्दीसूत्र पर भी आपने संस्कृत वृत्ति लिखी, जो कि लघु होती हुई भी बृहद् है । जिसका ग्रन्थाग्र 2336 श्लोक परिमाण है, आचार्य हरिभद्रजी के होने का समय वि.सं. 6वीं शती का निश्चित किया जाता है । श्रीमान् मेरुतुंग आचार्य स्वप्रणीत विचार - श्रेणी में लिखते हैं
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पंच स पणसीए विक्कम, कालाओ झत्ति अत्थमिओ । हरिभद्दसूरि सूरो, भवियाणं दिसउ कल्लाणं ॥
आचार्य हरिभद्रजी विक्रम सं. 585 में देवत्व को प्राप्त हुए, इस उद्धरण से भी छठी शती सिद्ध होती है।
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