Book Title: Namo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Author(s): Dharmsheelashreeji
Publisher: Ujjwal Dharm Trust

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Page 10
________________ जैन आगम, दर्शन एवं साहित्य से संबद्ध अनेक विषयों पर मेरा अध्ययन चलता रहा, किंतु णमोक्कार मंत्र पर मेरा ध्यान अधिक केंद्रित रहा, क्योंकि इस महामंत्र में जैन दर्शन का सार समाय हुआ है। णमोक्कार संबंधी प्राकृत, संस्कृत, हिंदी, गुजराती, मराठी, राजस्थानी, अंग्रेजी आदि भाषाओं में रचित अनेक ग्रंथों का समीक्षात्मक दृष्टि से मैंने अध्ययन किया। अध्ययन के व्यवस्थित उपक्रम में उपयोगी जानते हुए, मेरा चिंतन डी.लिट. हेतु शोध-प्रबंध तैयार करना था। बहुत चाहते हुए भी तब तक ऐसे किसी विशिष्ट सुयोग्य विद्वान् का सान्निध्य प्राप्त नहीं हो सका, जिनके पथदर्शन और सहयोग से अपने अनुसंधानात्मक अध्ययन को सुव्यवस्थित और सुनियोजित रूप में प्रस्तुत कर पाती। मेरे चेन्नई-प्रवास में प्रमुख समाजसेवी, अनन्य साहित्यानागी, उदारचेता श्री सुरेंद्रभाई एम. मेहता के सत्प्रयास से, प्राकृत जैन शोध संस्थान, वैशाली तथा मद्रास विश्वविद्यालय के पूर्व प्राध्यापक, विद्वद्वर्य डॉ. छगनलालजी शास्त्री के मार्गदर्शन एवं सहयोग का सुअवसर प्राप्त हुआ। शोध-विषय के संबंध में पुन: गहराई से चिंतन किया गया तो ऐसा अनुभव हुआ कि णमोक्कार महामंत्र के सिद्ध-पद' पर अब तक शोध-कार्य विशेष रूप से नहीं हो पाया है, इसलिए इस विषय को परिग्रहीत करना अधिक उपयोगी होगा। सिद्धत्व-लाभ ही प्रत्येक साधक के जीवन का अंतिम लक्ष्य है। धर्म, योग, अध्यात्म, उपासना, साधना सभी उस पद को प्राप्त करने हेतु साधे जाते हैं। प्रस्तुत विषय का विश्लेषण, विशदीकरण एवं समीक्षण मेरे अपने लिए , जिज्ञासु तथा मुमुक्षु साधकों के लिए उपयोगी होगा। साथ ही साथ इस महान् लक्ष्य के बोध से आज के मानव-समाज को, जो भौतिक अभीप्साओं और एषणाओं में विभ्रांत है, एक आध्यात्मिक आलोक प्राप्त होगा, जिससे संभव है, सत्त्वोन्मुखी सही दिशा की ओर उनके मन में भावोद्रेक हो। इन्हीं सब भावनाओं को दृष्टि में रखते हुए "णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन" विषय डी.लिट के शोध-ग्रंथ हेतु स्वीकार किया। सिद्ध-पद को केंद्र में रखकर अपनी सम्पूर्ण सामग्री का पुन: अवलोकन, परीक्षण एवं परिशीलन किया तथा उसे अपने इस विषय के अनुरूप सांचे में ढाला। उत्तरोत्तर अग्रसर होते इस कार्य में विद्वद्वर्य डॉ. शास्त्रीजी का सतत वैदुष्यपूर्ण निर्देशन एवं सहयोग रहा, जिससे थोड़े ही समय में इस विशाल कार्य को परिसंपन्न किया जा सका। मुझे बड़े आत्म-परितोष का अनुभव होता है कि प्रात: स्मरणीया, गुरुवर्या की प्रेरणा से जो कार्य मैंने प्रारंभ किया था, वह संपन्न हो सका, किंतु मेरी श्रुतोन्मुखी महतीयात्रा का यह पर्यवसान नहीं है, यह तो एक विश्राम है। मेरी यह विद्यामयी यात्रा यावज्जीवन चलती रहे, ऐसी ही मेरी हार्दिक अभिलाषा है। “यावत् जीवेत्, तावत् अधीयेत”- वैदिक ऋषि का यह वाक्य मुझे बड़ा सुखद प्रतीत होता है। जब तक जीवन रहे, तब तक ज्ञानोपासना का पावन-क्रम भी रहे। मैं तो इसे साधना का एक अनन्य अंग मानती हूँ। चित्तवृत्तियों के नियंत्रण या निरोध में ज्ञानोपक्रम या स्वाध्याय की बहुत बड़ी उपयोगिता है। 10

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