Book Title: Namo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan Author(s): Dharmsheelashreeji Publisher: Ujjwal Dharm Trust View full book textPage 9
________________ - || EE आमुख E EE FE . E महाराष्ट्र की पुण्यभूमि में मेरा एक साधन-संपन्न सुखी परिवार में जन्म हुआ। पूर्व जन्म के संस्कारों के कारण सांसारिक सुख-सुविधाएँ एवं साधन मुझे आकर्षित नहीं करते थे। मुझे उनमें आत्मतोष और आनंद की अनुभूति नहीं होती थी। शैशव से ही त्याग-तपोमय साध्वीवृंद का सान्निध्य मुझे बड़ा मनोज्ञ और आत्मोल्लासप्रद प्रतीत होता था। विस्तार में न जाते हुए इतना ही कहना पर्याप्त है कि क्रमश: मेरे कदम धर्म एवं अध्यात्म की दिशा में बढ़ते गए। मैंने सर्वविरतिमय, जैन श्रमण दीक्षा स्वीकार की। जीवन ने एक नया मोड़ लिया। ज्ञान और साधना में ही मैंने अपने जीवन का सर्वस्व देखा। मैं अपने को अत्यंत सौभाग्यशीलिनी मानती हूँ कि मुझे ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र के उत्तुंग हिमाद्रि, राष्ट्रसंत १००८ श्री आनंदऋषिजी म.सा. जैसे महापुरुषों का अनुग्रह प्राप्त हुआ। आध्यात्मिक दृष्टि से सागरवत् गांभीर्यशीला, परमश्रद्धास्पदा, विश्वसंत-विरुद-विभूषिता महासती जी श्री उज्ज्वलकुमारीजी म. का चिर सान्निध्य मिला। उनकी प्रेरणा से विद्याराधना और संयमोपासना के प्रशस्त-पथ पर मैं उत्तरोत्तर गतिशील रही। उनकी सदैव यह शिक्षा रहती कि श्रमण-जीवन में आचार-संहिता के सम्यक् परिपालनपूर्वक ज्ञान के क्षेत्र में अग्रसर होते रहना अत्यंत उपादेय है। उससे आंतरिक शक्ति की वृद्धि होती है। विवेक और प्रज्ञा का अभ्युदय होता है। ___महामहिमामयी गुरुणीवर्या की शिक्षा को मैंने अपना जीवन-सूत्र बना लिया तथा उस दिशा में अपने आपको सदैव क्रियाशील रखा। साधु जीवनोचित समस्त आवश्यक क्रियाओं के साथ-साथ मैं अपने अध्ययन में सतत, सोत्साह उद्यत रही। एम.ए. परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् मैंने नव तत्त्व पर पी-एच.डी. हेतु शोध-कार्य किया, जिसमें गुरुजन के आशीर्वाद से मुझे सफलता प्राप्त हुई। ज्ञान तो एक महासागर की तरह असीम एवं अगाध है। जो जितना भी इस महासागर में अवगाहन करे, बोधमय अमूल्य रत्नों को प्राप्त करता जाता है। स्वाध्याय एवं श्रुतोपासना एक आभ्यंतरिक तप है, यह मानती हुई मैं अनुसंधानात्मक दृष्टि से जैन एवं जैनेतर शास्त्रों के अध्ययन में यथेष्ट समय देती रही। अपने श्रमण चर्या के नियमों के परिपालन के साथ-साथ अध्ययन का भी मेरा दैनंदिन व्यवस्थित क्रम रहा। चाहे चातुर्मासिक काल हो, चाहे अवशेष काल में विहार यात्राएं हों, वह क्रम यथासंभव गतिशील रहता। ___ पी-एच.डी. उत्तीर्ण किए मुझे लगभग बाईस वर्ष हो चुके हैं, किंतु मेरा शोध या अनुसंधान की दृष्टि से अध्ययन का वही क्रम अब तक चला आ रहा है, जिससे मुझे आत्मपरितोष की अनुभूति होती है। FEPage Navigation
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