Book Title: Namo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Author(s): Dharmsheelashreeji
Publisher: Ujjwal Dharm Trust

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Page 7
________________ r f r [ T सिद्धत्व क्या है ? उसके अधिगत हो जाने पर जीव में क्या परिवर्तन आता है ? वह भोगनिरपेक्ष शाश्वत आनन्द क्या है, जिसके प्राप्त होने पर फिर कुछ भी प्राप्य नहीं रह जाता, सब कुछ प्राप्त हो जाता है । इन्हीं सब विषयों का महासतीजी ने इस शोध-ग्रंथ में जो विद्वत्तापूर्वक प्रतिपादन किया है, उसमें निःसन्देह इतनी विपुल और गहन सामग्री समाकलित है कि इसे सिद्धत्व का एक सन्दर्भ-ग्रन्थ कहा जाए तो अत्युक्ति नहीं होगी । अंग, उपांग, मूल आदि आगमों में भिन्न-भिन्न प्रसंगों में सिद्ध परमात्मा के लक्षण, गुण, स्थान, संख्या, सादित्व, अनादित्व, अवगाहना इत्यादि विषयों पर चर्चाएं हुई हैं। भगवान् महावीर और उनके प्रमुख अंतेवासी गणधर गीतम के प्रश्नोत्तर, गौतम और पार्श्वपत्यिक कुमार केशीश्रमण के आलाप संलाप इत्यादि अनेकानेक विषय व्याख्यात हुए हैं, जिन पर प्रस्तुत शोध-ग्रंथ में सार रूप में प्रकाश डाला गया है । आगम-वाङ्मय में सिद्ध-पद के वैविध्यपूर्ण विश्लेषण का जो संक्षिप्त चित्रांकन इस ग्रंथ में हुआ है, वह सिद्धत्व के जिज्ञासुओं के लिए बहुत ही उद्बोधप्रद है। आगमोत्तरकालीन प्राकृत एवं संस्कृत जैन ग्रंथों में णमोक्कार के अंतर्गत सिद्ध-पद का विद्वान् लेखकों ने जो सारगर्भित वर्णन किया है, उसका भी पूज्या महासतीजी ने सम्यक् अध्ययन कर संक्षेप में इस शोध-ग्रंथ में अनुसंधानात्मक शैली में विवेचन किया है। हिंदी, राजस्थानी, गुजराती आदि अनेक लोकभाषाओं में विद्वानों द्वारा रचित महत्त्वपूर्ण साहित्य में आए हुए सिद्ध-पद-विषयक विश्लेषण को भी यचाप्रसंग उपस्थित किया है तथा उस संबंध में अपना चिंतन प्रस्तुत किया है। सिद्ध-पद या परमात्म-पद ऐसा है, जो जैन जेनेतर सभी के लिए सर्वोत्तम आदर्श है। मार्ग भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, किंतु सभी का प्रयास उसे प्राप्त करने की दिशा में दृष्टिगोचर होता है। संत साहित्य और सूफी-साहित्य में इस संबंध में बड़ा विलक्षण वर्णन प्राप्त होता है। उन्होंने लौकिक प्रेम को आध्यात्मिक प्रेम या भक्ति की पवित्रता में परिणत कर क्रमशः प्रियतम के रूप में और प्रियतमा के रूप में परमात्मोपासना की विचित्र और सरस पद्धति उपस्थित की। जैन अध्यात्म योगी संतों के साहित्य में भी पति के रूप में परमात्मा या सिद्ध भगवान् की उपासना का भाव दृष्टिगोचर होता है। महासतीजी डॉ. धर्मशीलाजी म. ने इस विषय पर भी बड़ी विद्वत्ता के साथ अपनी लेखनी चलाई है और यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि जब अंतरात्मा में विशुद्ध भावोद्रेक होता है तो वासना तितिक्षा और बिरति के रूप में परिणत हो जाती है। यह तो आध्यात्मिक उत्थान का पक्ष हुआ, महासतीजी ने वर्तमान युग के परिप्रेक्ष्य में भी प्रस्तुत विषय की सामयिकता और उपयोगिता पर जो भाव व्यक्त किए हैं, वे आज के निराश और दुःखित मानव के लिए आत्म-स्फूर्ति का संदेश लिए हुए ᄒ 1 महासतीजी डॉ. धर्मशीलाजी जिस प्रकार स्वयं चारित्राराधना और श्रुत्ताराधना में संलग्न रहती हैं, उसी प्रकार वे अपनी अंतेवासिनी शिष्याओं को भी उनमें सदैव यत्नशील रखती हैं । इसी का 7

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