Book Title: Namo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Author(s): Dharmsheelashreeji
Publisher: Ujjwal Dharm Trust

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Page 5
________________ RS55 प्रस्तावना साहित्य किसी भी राष्ट्र, समाज और धर्म का प्राण-प्रतिष्ठापक तत्त्व है। वही उनकी व्यापक, स्थावर चिरजीविता का अनन्य उपादान है। भारतवर्ष इसीलिए आज अपनी सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक चेतना के साथ जीवित है, क्योंकि इसका साहित्य अनेक रूपों में प्राप्त है। साहित्य वह अजर-अमर तत्त्व है, जो कभी न तो पुराना होता है और न कभी नष्ट ही होता है। साहित्यिक दृष्टि से जैन श्रमण-श्रमणियों का राष्ट्र को अपरिमित, अनुपम अवदान रहा है। उन्होंने अध्यात्म, दर्शन और लोक-कल्याणमूलक साहित्य का विविध विधाओं में सर्जन किया, जो भारत के साहित्य-भंडार की अमूल्य निधि है। बड़े हर्ष का विषय है कि साहित्य-सर्जन का वह महान् उपक्रम आज भी अनवरत गतिशील है। अनेक संत-संतियों ने साहित्य-सर्जन का बहुत बड़ा कार्य किया है और कर रहे हैं। विद्या के क्षेत्र में आज अनुसंधान या शोध की प्रवत्ति उत्तरोत्तर गतिशील है। एक समय था, जब अध्येताओं में जैन धर्म और दर्शन के अध्ययन की बहुत कम रुचि थी, किंतु आज युग ने नया मोड लिया है। जैन दर्शन की महत्ता और सूक्ष्मता में अध्ययनशील जन आकृष्ट हो रहे हैं। इसलिए शोधात्मक दष्टि से देश के अनेक विश्वविद्यालयों तथा शोध-संस्थानों में जैन आगम, दर्शन एवं साहित्य से संबद्ध अनेक विषयों पर शोध-कार्य गतिशील हैं। जैन संत-सतियों में शास्त्रों के अध्ययन का क्रम तो सदा से प्रचलित था ही, किंतु अध्ययन की युगीन प्रवृत्ति को देखते हुए उनका ध्यान शास्त्रीय विषयों के अनुसंधानात्मक पक्ष की ओर विशेष रूप से आकृष्ट हुआ। यह लिखते हुए बड़े हर्ष का अनुभव होता है कि शोध (रिसर्च) की वर्तमान पद्धति को लेते हुए परम विदुषी महासती डॉ. श्री धर्मशीलाजी म. ने अपने द्वारा नव तत्त्व पर तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक दृष्टि से लिखे गए शोध-प्रबंध पर सन् १९७७ में पूना विश्वविद्यालय से पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। उपाधि तो एक शोध संबंधी व्यवस्था और औपचारिकता है। आपका तो एक मात्र लक्ष्य तत्त्वानुशीलन द्वारा अपनी साधना को बलवत्तर बनाना है। वह उपक्रम आज भी गतिशील है। महासतीजी का, इसे मैं परम सौभाग्य मानता हूँ कि उनको परमश्रद्धेया, विश्वसंतस्वरूपा महासतीजी परम पूज्या श्री उज्ज्वलकुमारीजी महाराज जैसी अनुपम गुरुवर्या प्राप्त हुईं, जिनके जीवन के कण-कण में श्रामण्य की दिव्य-ज्योति उजागर थी। महासतीजी डॉ. धर्मशीलाजी को अपनी श्रुत-चारित्रमयी आध्यात्मिक यात्रा में उन प्रात: स्मरणीया गुरुवर्या का जो मार्गदर्शन, सत्प्रेरणा और आशीर्वाद प्राप्त रहा, नि:संदेह वह उनके लिए वरदान सिद्ध हुआ। महासतीजी चारित्राराधना के साथ-साथ ज्ञानाराधना के पथ पर भी अग्रसर होती रहीं। श्रमणचर्या के सम्यक् परिपालन लोक-जागरण हेतु जनपद-विहार, धर्म-प्रभावना आदि R ATE SANTARATHIMIRHUADRASHT -

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