________________ 38 मेषषीयचरितं महाकाव्यम् विधे पत्त्रं ( 10 त०), "सर्व स्याद्वाहनं यानं युग्मं पत्त्रं च धारणम्" इत्यमरः / जाया च पतिश्च दम्पती ( द्वन्द्व, ), 'राजदन्तादिषु परम्' इस सूत्रसे 'जाया' शब्दका दम्' भावका निपातन, "दम्पती जम्पती जायापती भार्यापती च तो" इत्यमरः / विधिपत्त्रे च ते दम्पती ( क० धा०)। एत्य=आङ्+इण् +क्त्वा (ल्यप्) / रुतः=रवणं रुत्, तस्याः "रु शब्दे" धातुसे “सम्पदादिभ्यः क्विप्" इस वार्तिकसे क्विप् प्रत्यय और "ह्रस्वस्य पिति कृति तुक" इस सूत्रसे तुक् आगम / सहंसकीकुरुतः हंसी इव हंसके, 'हंस' शब्दसे "इवे प्रतिकृती" इस सूत्रसे कन् प्रत्यय / हंसकाभ्यां (पादकटकाभ्याम्) सहिते सहंसके (तुल्ययोगबहु०), "हंसकः पादकटकः" इत्यमरः / असहंसके सहंसके यथा सम्पद्येते तथा कुरुतः, सहंसक+वि++लटू+तस् / ब्रह्माके वाहन हंसी और हंस आकर दो कमलों ( दमयन्तीके चरणों) को शब्द करके मानों पादकटकों (नूपुरों) से युक्त बनाते हैं; यह तात्पर्य है / रुतः-शब्द करते हैं, इस पक्षमें 'रु शब्दे' धातू से लट् +तस् / सहंसकी कुरुतः=हंसाभ्यां सहिते सहंसके ( तुल्ययोगबहु०), 'शेषाद्विभाषा' इस सूत्रसे समासाऽन्त कप् प्रत्यय / विप्रत्यय पहलेके समान / ब्रह्माके वाहन हंसी और हंस आकर शब्द करते हैं और दमयन्तीके चरणकमलोंको हंसयुक्त बनाते हैं / ध्रुवम् = यह उत्प्रेक्षावाचक शब्द है / दमयन्तीके चरण कमलसरीले हैं और वे नूपुरयुक्त होकर शब्द करते हैं; यह अभिप्राय है / इस पद्यमें पूर्वार्द्ध में कमल और हंस की सहस्थिति होनेसे दिव्य कमलोंकी दमयन्तीके चरणत्वमें गुणोत्प्रेक्षा और उत्तरार्द्ध में दिव्यहसोंके सहंसकत्व करनेसे क्रियोत्प्रेक्षा और हंस और हंसक (पादकटक) में भेद होनेपर भी श्लेषसे अभेदका अध्यवसाय होनेसे अतिशयोक्ति अलकार है, इस प्रकार इनकी निरपेक्षतासे स्थिति होनेसे संसृष्टि अलङ्कार है // 38 // श्रितपुण्यसर:सरित कथं न समाधिक्षपिताऽविलक्षपम् / जलज गतिमेत मन्जुला दमयन्तीपदनाम्नि जन्मनि // 36 // अन्वयः-श्रितपुण्यसरःसरित् समाधिक्षपिताऽखिलक्षपं जलजं दमयन्तीपदनाम्नि जन्मनि मञ्जुला गतिं कथं न एतु // 39 // व्याख्या-त्रितपुण्यसर सरित=सेक्तिपवित्रकासारनदीकं, समाधिक्षपिताऽलिखक्षपं =ध्यानयापितसमस्तरजनीकं, जलज-कमलं, दमयन्तीपदनाम्नि= दमयन्तीचरणनामधेये, जन्मनि जनने, जन्मान्तर इति भावः / मन्जुलां